यह साल (२०१२)मेरे लिए और मेरे खान- दान के लिए बड़ा ही विशेष था.क्योंकि इस वर्ष ही मुझे और मेरी पत्नी को श्रीनगर जाने का मौका मिला.नहीं तो मेरी पिछली तीन पीढ़ियों ने उत्तर प्रदेश से तो क्या अलीगढ से आगे निकल कर नहीं देखा.भाई किस को फुर्सत है खेती-बाड़ी से?मगर मैंने तो सोच लिया था कि भैया चाहें कुछ भी हो घूमना-घुमाना जरुर करूँगा चाहें थोडा-बहुत कम बचत करनी पड़े.क्योंकि ज़नाब गाफिल ने क्या खूब कहा है-"सैर कर दुनिया कि गाफिल जिंदगानी फिर कहाँ / जिंदगानी गर रही तो नौ-जवानी फिर कहाँ?"
जैसा कि मैंने कहा कि यह साल मेरे लिए बड़ा ही विशेष रहा,कई रिकॉर्ड टूटे मेरे खान दान के -
पहला रिकॉर्ड -मै और मेरे परिवार ने एयर-इंडिया से हवाई यात्रा की.आज कल अगर कोई आम आदमी एयर-इंडिया से हवाई यात्रा कर ले ये ही अपने आप में रिकॉर्ड बन जाता है.हांलांकि सरकारी अफसरों की बीबियाँ अपने पति के ऊपर जबरदस्ती दबाव डाल कर उनका और अपने परिवार का रिजर्वेसन एयर-इंडिया में ही करवातीं हैं क्यों कि उनको लगता है कि एयर इंडिया की यात्रा उन के पति के लिए सुरक्षित है.क्यों कि एयर इंडिया कि एयर होस्टेस अधेड़, साड़ी-शुदा और शादी-शुदा होती हैं.जिस से उन के पति खुद ही तांक-झांक नहीं करतें हैं.अन्यथा किंगफिशर जैसी एयर-लाइंस में तो साधू-संत भी चक्षु-शेकन करना आरम्भ कर देतें हैं.आम आदमी तो फिर भी अबला नारी का शिकारी होता ही है.
और फिर एयर इंडिया में सफ़र करना इतना महंगा है कि आम आदमी तो अपनी बीबी को समझा लेता है कि -"तुम ऐसा करो प्रिये! कि एक किलो चावल-दाल मिक्स कर लो.मैं फ्लाईट मैं दोनों को अलग करता रहूँगा.इस से पैसे भी बच जायेंगे और मैं उन किंगफिशर की अप्सराओं की ओर मेरा ध्यान भी नहीं जायेगा."
दूसरा रिकॉर्ड यह टुटा कि मैं उस उत्तर प्रदेश कि सीमा से बाहर निकला,जिस उत्तर प्रदेश मैं हाथी भी मूर्ति बन के चुप-चाप पार्कों में खड़ा रहता है.सरकारी उच्चा अधिकारी भी बहन जी के सामने दम हिलाते नज़र आतें हैं .तो बेचारा आम आदमी क्या करेगा?जिस उत्तर प्रदेश में दलितों को मात्र वोट-बैंक की दृष्टि से ही देखा जाता है.जिन्हें जीवन पर्यंत दलित जीवन की सीमाओं में बंधे रहने के लिए अप्रत्यक्ष रूप से बाधित किया जाता है.क्यों कि चाहें वे कितने भी बड़े बन जाएँ,मगर politician अपने फायदे के लिए उन्हें दलित ही बना कर रखतें हैं .फिर क्या फर्क पड़ता है कि आप कि आर्थिक स्थिति कितनी सुद्रढ़ है जब तक कि आप को दलित ही कहा जा रहा है.दलित शब्द का अर्थ है-"प्रताड़ित/पीडित/शोषित".मगर क्या कोई व्यक्ति तब भी शोषित रहता है जब वह उच्च सरकारी सेवाओं पर नियुक्त हो जाता है.जहाँ उसे अपनी सात पीढ़ियों तक को पालने पैसा मिल जाता है.मगर वह भी अपने बच्चों को दलित कहलवाना ही पसंद करता है -चंद आरक्षण सम्बन्धी लाभों के लिए.जिस अभिशाप से बचाने के लिए संविधान में दलित-भलाई कार्यक्रमों का प्रावधान गुनी-जनों ने किया था वे सब निरर्थक ही सिद्ध होतें है क्यों कि आज तक दलित का बेटा या उसके बेटे का बेटा दलित ही रहा है.उस का ओहदा बढ़ सकता है ,उस कि आर्थिक स्थिति मजबूत हो सकती है मगर उस कि सामाजिक स्थिति मैं कोई बदलाब नहीं आता.वह अपनी आगामी पीढ़ियों को भी जन्मजात दलित घोषित कर देता है.क्यों कि दलित बने रहेंगे तो ही आरक्षण भी मिलाता रहेगा.फिर कोई क्यों अपनी स्थिति में सुधार लाये.
मैंने उस उत्तर प्रदेश की सीमायें पार की जिस की सीमाएं सिर्फ बाहरी प्रदेशों में काम पानें और अपना पेट भरने के लिए ही पार की जाती हैं .ना कि घुमक्कड़ी का शौक पूरा करने के लिए.जहाँ के लोग आज भी पुलिस थाने में रिपोर्ट दर्ज करने के ५०० रुपये देतें हैं.जहाँ कि पुलिस पैसे ले कर भी ,कब ताकतवर पार्टी के साथ मिल जाये कोई भरोसा नहीं,जहाँ गरीबों के लिए आने वाला मिटटी का तेल भी उन के घरों को फूंकने के काम में लिया जाता है.जहाँ की शासन व्यवस्था को आज तक कोई चाणक्य नहीं मिला,न कोई चन्द्रगुप्त.जो भी शासक बना उसने सिर्फ अपनी और अपनी जाति कि भलाई के बारे में ही सोचा.किसी ने अपने गाँव के लिए रन-वे बनवा दिया तो किसी ने हेली-पैड.किसी ने हाथी की मूर्ति लगवा दी तो किसी ने गधे की.समझ नहीं आता कि इन के पास इन हाथियों-गधों से मिलने कि फुर्सत खूब मिलती हैं मगर इंसानों कि याद सिर्फ चुनाव से पहले ही आती है.
मजाक-मजाक में बहुत भंडास निकाल ली ,क्या करें इन राज नेताओं ने अपने विशेष* कर्मों से लेखकों को इतना मसाला प्रदान कर दिया कि जितना भी गरियाओ,न तो मसाला ख़त्म होता है न भंडास.खैर मैंने श्रीनगर जाने के लिए लिए लगभग दो महीने पहले से तयारी शुरू कर दी थी.होटल्स कि तलाश ओन लाइन कि तो ससुरा सब से सस्ता होटल मिला तो 1455 /- का.अब वहां जाना था तो रहना ही पड़ेगा.इस लिए एक दिन के लिए वाही होटल बुक कर दिया.हांलांकि 6 दिन रहना था मगर होटल एक दिन के लिए बुक किया.यह सोच कर कि हो सकता है कि डैरेक्ट होटल बुक करें तो शायद कुछ रियायत मिल जाये.मगर जब में वहां पहुंचा तो इन ऑन-लाइन होटल बुकिंग की असली पोल खुली.भैया जितने भी टूरिस्ट एरिया के जो होटल वालें हैं ससुरे बहुत ही चालू पुर्जे वाले हैं.इन का कोई हिसाब- किताब नहीं है.जैसी मुर्गी फंस जाये,वैसा ही बटोर लो.क्यों कि ज्यादा तर तो वहां हनी-मून मनाने ही जातें हैं इसीलिए नई बीबी को इम्प्रेस करने के चक्कर में ससुरे खूब खर्चा करतें हैं.खूब महंगे होटल में रुकतें हैं .अब एक बात बताइए आप हनी-मून बीबी के साथ मनाएंगे या होटल के साथ.खैर सौ बातों की एक बात कि भैया अगर पैसा मेहनत का हो तो खर्च किया जाता है,और हराम का हो तो उड़ाया जाता है.मालुम नहीं कि मेहनतकश लोग पैसा उड़ाने की बात क्यों करतें हैं.अगर उड़ना ही था तो इतनी मेहनत क्यों?
जैसा कि मैंने कहा कि यह साल मेरे लिए बड़ा ही विशेष रहा,कई रिकॉर्ड टूटे मेरे खान दान के -
पहला रिकॉर्ड -मै और मेरे परिवार ने एयर-इंडिया से हवाई यात्रा की.आज कल अगर कोई आम आदमी एयर-इंडिया से हवाई यात्रा कर ले ये ही अपने आप में रिकॉर्ड बन जाता है.हांलांकि सरकारी अफसरों की बीबियाँ अपने पति के ऊपर जबरदस्ती दबाव डाल कर उनका और अपने परिवार का रिजर्वेसन एयर-इंडिया में ही करवातीं हैं क्यों कि उनको लगता है कि एयर इंडिया की यात्रा उन के पति के लिए सुरक्षित है.क्यों कि एयर इंडिया कि एयर होस्टेस अधेड़, साड़ी-शुदा और शादी-शुदा होती हैं.जिस से उन के पति खुद ही तांक-झांक नहीं करतें हैं.अन्यथा किंगफिशर जैसी एयर-लाइंस में तो साधू-संत भी चक्षु-शेकन करना आरम्भ कर देतें हैं.आम आदमी तो फिर भी अबला नारी का शिकारी होता ही है.
और फिर एयर इंडिया में सफ़र करना इतना महंगा है कि आम आदमी तो अपनी बीबी को समझा लेता है कि -"तुम ऐसा करो प्रिये! कि एक किलो चावल-दाल मिक्स कर लो.मैं फ्लाईट मैं दोनों को अलग करता रहूँगा.इस से पैसे भी बच जायेंगे और मैं उन किंगफिशर की अप्सराओं की ओर मेरा ध्यान भी नहीं जायेगा."
दूसरा रिकॉर्ड यह टुटा कि मैं उस उत्तर प्रदेश कि सीमा से बाहर निकला,जिस उत्तर प्रदेश मैं हाथी भी मूर्ति बन के चुप-चाप पार्कों में खड़ा रहता है.सरकारी उच्चा अधिकारी भी बहन जी के सामने दम हिलाते नज़र आतें हैं .तो बेचारा आम आदमी क्या करेगा?जिस उत्तर प्रदेश में दलितों को मात्र वोट-बैंक की दृष्टि से ही देखा जाता है.जिन्हें जीवन पर्यंत दलित जीवन की सीमाओं में बंधे रहने के लिए अप्रत्यक्ष रूप से बाधित किया जाता है.क्यों कि चाहें वे कितने भी बड़े बन जाएँ,मगर politician अपने फायदे के लिए उन्हें दलित ही बना कर रखतें हैं .फिर क्या फर्क पड़ता है कि आप कि आर्थिक स्थिति कितनी सुद्रढ़ है जब तक कि आप को दलित ही कहा जा रहा है.दलित शब्द का अर्थ है-"प्रताड़ित/पीडित/शोषित".मगर क्या कोई व्यक्ति तब भी शोषित रहता है जब वह उच्च सरकारी सेवाओं पर नियुक्त हो जाता है.जहाँ उसे अपनी सात पीढ़ियों तक को पालने पैसा मिल जाता है.मगर वह भी अपने बच्चों को दलित कहलवाना ही पसंद करता है -चंद आरक्षण सम्बन्धी लाभों के लिए.जिस अभिशाप से बचाने के लिए संविधान में दलित-भलाई कार्यक्रमों का प्रावधान गुनी-जनों ने किया था वे सब निरर्थक ही सिद्ध होतें है क्यों कि आज तक दलित का बेटा या उसके बेटे का बेटा दलित ही रहा है.उस का ओहदा बढ़ सकता है ,उस कि आर्थिक स्थिति मजबूत हो सकती है मगर उस कि सामाजिक स्थिति मैं कोई बदलाब नहीं आता.वह अपनी आगामी पीढ़ियों को भी जन्मजात दलित घोषित कर देता है.क्यों कि दलित बने रहेंगे तो ही आरक्षण भी मिलाता रहेगा.फिर कोई क्यों अपनी स्थिति में सुधार लाये.
मैंने उस उत्तर प्रदेश की सीमायें पार की जिस की सीमाएं सिर्फ बाहरी प्रदेशों में काम पानें और अपना पेट भरने के लिए ही पार की जाती हैं .ना कि घुमक्कड़ी का शौक पूरा करने के लिए.जहाँ के लोग आज भी पुलिस थाने में रिपोर्ट दर्ज करने के ५०० रुपये देतें हैं.जहाँ कि पुलिस पैसे ले कर भी ,कब ताकतवर पार्टी के साथ मिल जाये कोई भरोसा नहीं,जहाँ गरीबों के लिए आने वाला मिटटी का तेल भी उन के घरों को फूंकने के काम में लिया जाता है.जहाँ की शासन व्यवस्था को आज तक कोई चाणक्य नहीं मिला,न कोई चन्द्रगुप्त.जो भी शासक बना उसने सिर्फ अपनी और अपनी जाति कि भलाई के बारे में ही सोचा.किसी ने अपने गाँव के लिए रन-वे बनवा दिया तो किसी ने हेली-पैड.किसी ने हाथी की मूर्ति लगवा दी तो किसी ने गधे की.समझ नहीं आता कि इन के पास इन हाथियों-गधों से मिलने कि फुर्सत खूब मिलती हैं मगर इंसानों कि याद सिर्फ चुनाव से पहले ही आती है.
मजाक-मजाक में बहुत भंडास निकाल ली ,क्या करें इन राज नेताओं ने अपने विशेष* कर्मों से लेखकों को इतना मसाला प्रदान कर दिया कि जितना भी गरियाओ,न तो मसाला ख़त्म होता है न भंडास.खैर मैंने श्रीनगर जाने के लिए लिए लगभग दो महीने पहले से तयारी शुरू कर दी थी.होटल्स कि तलाश ओन लाइन कि तो ससुरा सब से सस्ता होटल मिला तो 1455 /- का.अब वहां जाना था तो रहना ही पड़ेगा.इस लिए एक दिन के लिए वाही होटल बुक कर दिया.हांलांकि 6 दिन रहना था मगर होटल एक दिन के लिए बुक किया.यह सोच कर कि हो सकता है कि डैरेक्ट होटल बुक करें तो शायद कुछ रियायत मिल जाये.मगर जब में वहां पहुंचा तो इन ऑन-लाइन होटल बुकिंग की असली पोल खुली.भैया जितने भी टूरिस्ट एरिया के जो होटल वालें हैं ससुरे बहुत ही चालू पुर्जे वाले हैं.इन का कोई हिसाब- किताब नहीं है.जैसी मुर्गी फंस जाये,वैसा ही बटोर लो.क्यों कि ज्यादा तर तो वहां हनी-मून मनाने ही जातें हैं इसीलिए नई बीबी को इम्प्रेस करने के चक्कर में ससुरे खूब खर्चा करतें हैं.खूब महंगे होटल में रुकतें हैं .अब एक बात बताइए आप हनी-मून बीबी के साथ मनाएंगे या होटल के साथ.खैर सौ बातों की एक बात कि भैया अगर पैसा मेहनत का हो तो खर्च किया जाता है,और हराम का हो तो उड़ाया जाता है.मालुम नहीं कि मेहनतकश लोग पैसा उड़ाने की बात क्यों करतें हैं.अगर उड़ना ही था तो इतनी मेहनत क्यों?
Rochak........Keep writing
जवाब देंहटाएंthanks Ayush.
जवाब देंहटाएंvery niiiiiice sir
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