ऐसा ही हमें हमारे धर्म ग्रंथों में सिखलाया गया कि दया और करुणा
हमारे धर्म के मुख्य आधार है | इसलिए एक व्यक्ति को चाहिए कि वह केवल मानव पर
ही अपितु जीव मात्र पर दया और करुना क भाव रखे | यदि हम जानवरों पर अत्याचार करतें
है उन्हें मारते अथवा उनका वध करते हैं तो निश्चित रूप से आप धर्म के अपराधी होने
का कार्य कर रहें हैं | सनातन धर्म हमें शिक्षा देता है कि वास्तव में प्रत्येक जीव एक आत्मा है अर्थात्
वह शरीर से ही मात्र भिन्न है अन्यथा एक मानव में और किसी सर्प या गाय में कोई
विशेष भिन्नता नहीं है| यदि हम ऐसा भाव रखें तो फिर असमानता का भाव ही समाप्त हो
जायेगा | वास्तव में हम ऐसा महसूस नहीं करते हैं तभी शायद रोज़ के रोज़ हम अनेक
प्राणियों के जीवन के साथ खिलवाड़ न कर रहे होते| रोज़ के रोज़ अनेकों पेड़ों को काट
कर हम अनेकों पक्षियों के बेघर करते समय तो नहीं सोचते कि उनका क्या होगा | मगर जब
हम कभी उन्हीं समस्याओं से गुज़रते है तो हम भगवान् को कोसते हैं | हिन्दू धर्म में
एक और सिद्धांत है वह है – प्रकृति का सिद्धांत (जिसे कर्म का सिद्धांत भी कहा
जाता है )| इसके अनुसार हम जिस जीव के साथ जैसा व्यवहार कर रहे हैं प्रकृति हमें
भी उसकी प्रतिक्रिया की व्यवस्था करने की जिम्मेदारी लेती है | मतलब जब स्वयं प्रकृति
ने यह जिम्मेदारी ले ली तो उसमें किसी को कोई शक नहीं होना चाहिए | चूँकि प्रकृति
अद्भुत बलशाली है और संप्रभु है कि उसके सामने कोई महाशक्तिशाली व्यक्ति भी तुच्छ
है तो फिर किसी छुटभैये की तो औकात ही क्या है| मगर कमाल की बात यह है कि समय के
साथ –साथ हम सभी अपने धर्म की शिक्षाओं से दूर होते जा रहें हैं| जहाँ हम अपनी तीन
-चार पीढ़ियों के साथ संयुक्त परिवार में रहते
थे आज एकल परिवार में रहने के लिए मजबूर हो गए हैं| व्यस्त जीवन शैली में हमें
अपने परिवारीजनों तक के लिए समय नहीं होता तो फिर कहाँ से कोई धर्म की शिक्षा
प्राप्त करे| न हम मंदिरों में जाकर शुद्ध भक्तों का संग प्राप्त करते हैं और न ही
हम धर्म ग्रंथों का अध्ययन करतें हैं |
तो क्या करूँ मैं ?
तो सुनो भाई ! सबसे पहले
स्वयं पर दया करो |
वह कैसे ? ये कैसी बात हुई
?
भाई तुम भी तो खुद पर अत्याचार
ही कर रहे हो न ? क्या हम ने यह जन्म बड़े ब्रांड के कपड़ों के व्यापारियों की
तिजोरियां भरने के लिए लिया है या फिर बड़ी कारों के विक्रेताओं की सफलता के लिए या
फिर व्यापारियों के बैंक बेलेंस को बढ़ने के लिए ? या फिर रेस्तरां मालिकों की
जेबें गरम करने की खातिर ?
हाँ हम वही तो कर रहें हैं
| अपनी आवश्यकताओं को इतना बढ़ा दिया है हमने खुद को अथवा अपने प्रियजनों (जैसे पिता
अथवा पति) को कोल्हू का बैल बना दिया है, दिन रात काम पर लगा है|बस पैसा कमाने की प्रतियोगिता में इतना बहुमूल्य
समय बर्बाद कर रहें हैं और यह सब क्यों हो
रहा है उसका कारण है- अभिमान यानि अहंकार( मैं) | सभी लोग अपने अभिमान को
सब से ऊपर रखना चाहते हैं | जैसे मेरे पास सबसे बड़ी गाड़ी है या बंगला या ब्रांडेड
कपडे या फिर बहुत प्रकार के परिधान(कपडे)| सब के सब अभिमान के कारण ही तो हैं? हमें अपने मित्रों से कहना अच्छा लगता है कि हम
हफ्ते में ज्यादातर बाहर ही फलां रेस्तरां में खाना खातें हैं| इस से हमारा स्टैटस
बढ़ता है जो अभिमान का परिवर्तित स्वरुप है | मगर इस अभिमान के चक्कर में हम
रेस्तरां मालिकों की जेबें अनावश्यक रूप से भर देतें हैं और अपनी जेबें खाली
जिन्हें भरने के लिए हमें पुनः गधे की भांति प्रयास करना पड़ता है| जिस से हमारे
जीवन का बहुमूल्य समय व्यर्थ ही चला जाता है | तो सब से पहले खुद पर दया कीजिए फिर
अपने प्रियजनों पर उसके बाद समस्त प्राणियों पर|
क्योंकि दया धर्म का मूल है
और पाप मूल अभिमान
हरे कृष्ण