क्या आप जानतें हैं उस देश का नाम - जिस की ना कोई भाषा है, न कोई भूषा और न ही संस्कृति ? सब कुछ बस उधार का है.उस देश के नागरिक भी स्वयं को बड़ा ही श्रेष्ठ मानतें हैं,जब वे इन उधार की वस्तुओं का उपयोग करतें हैं.जिस देश को गुलामी की ऐसी लत लगी कि उन्होंने गुलामी की इन निशानियों को बड़े ही गर्व के साथ अब तक अपने सीने से लगा कर रखा है. समझ तो आप गएँ ही होंगे कि मैं किस राष्ट्र की बात कर रहा हूँ ?...जी हाँ! बड़े अफ़सोस के साथ कह रहा हूँ कि अपने देश की ही बात कर रहा हूँ.
"आजाद होने के बाद ,जब हमारे देश को गणतांत्रिक देश घोषित किया गया ,सरकार ने दुनिया के सब देशों से अपने राजनीतिक सम्बन्ध बनाने की श्रंखला में ,1952 में श्रीमती विजय लक्ष्मी पंडित को रूस में भारत का राजदूत नियुक्त किया तो जब वहां के सम्बंधित अधिकारीयों ने उन से प्रमाण पत्र मांगे तो श्रीमती पंडित ने जब प्रमाण पत्र दिखाए तो उन्हों ने उन प्रमाण पत्रों को स्वीकार करने से साफ़ मना कर दिया क्यों कि वे सब प्रमाण पत्र भारतीय भाषा में ना हो कर अंग्रेजी भाषा में थे ,जो कि भारत की गुलामी की भाषा थी.और किसी गुलाम देश के साथ राजनयिक सम्बन्ध स्थापित करने का प्रश्न ही नहीं उठता.
अधिकारियों ने उन से पूंछा कि "क्या भारत की अपनी कोई भाषा नहीं,क्या अंग्रेजों के आने से पहले आप गूंगे थे ?" मगर हमने उस अपमान को हंस कर सहन कर लिया, आज तक हम में कोई बदलाव नहीं हुआ.आज भी हमारी पुस्तकों से लेकर प्रमाण पत्र तक सब में अंग्रेजी पुती रहती है.
हर साल सरकार हिंदी पखवाड़े को ले कर करोडो रुपयों में आग लगा देती है,यह कह कर कि हम हिंदी सिखा रहें हैं.अरे भाई ऐसी जगह पैसा क्यों फूंकते हो जहाँ उसकी आवश्यकता ही नहीं.क्या ब्रिटेन अंग्रेजी पखवाडा मनाता है.या चीन चीनी महीना मनाता है.क्या आप ने किसी देश को अपनी भाषा का अपने लोगों में ही प्रचार-प्रसार करते देखा है.मगर यह हमारा दुर्भाग्य है.
विश्व के सभी सम्मेलनों में विभिन्न देशों के राजनयिक(नेता लोग) अपनी राष्ट्र भाषा में ही भाषण देतें हैं,वे इस के बारे में कम चिंतित होते हैं कि किसी को उनकी भाषा समझ में आ रही है या नहीं.मगर हमें तो जैसे दिखाबे का बड़ा बुरा चश्का लगा रहता है.हमारे नेता बस अंग्रेजी में ही बोलतें हैं.अन्य सभी राष्ट्रों ने अनुवादक रखें होतें हैं दुसरे नेताओं कि बात समझाने के लिए मगर हमारे नेता तो बेचारे किसी अनुवादक कि नौकरी ही खा जातें हैं.किसी भी देश में भारतीय भाषा के लिए अनुवादक रखने कि कोई आवश्यकता ही नहीं पड़ती.हम चाहें सभी भाषाओँ के अनुवादक रख कर खर्च कर लें मगर किसी और को क्यों खर्च करने दें?
एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मलेन में जब हमारे देश के पहले प्रधानमंत्री कि बारी आई तो सभी को बड़ी उत्सुकता थी कि भारत की आवाज सुनने का मौका सभी को मिलेगा.मगर उन को निराशा तब हाथ लगी जब माननीय प्रधानमंत्री ने अंग्रेजी में भाषण प्रारम्भ किया.कितना बुरा लगा होगा सभी को कि उन के अनुवादक लोग तो बेचारे दो महीने से हिंदी का अभ्यास कर रहे थे,मगर इन महोदय ने उनकी पूरी मेहनत पर पानी फेर दिया.
मुझे तो उन अनुवादकों पर दया आ रही है,क्यों कि जहाँ तक मैं सोचता हूँ उन को तो अगले ही दिन नौकरी से यह कह कर निकाल दिया गया होगा कि भारतीय नेता तो हिंदी में बोलतें ही नहीं हैं.तो आप की क्या आवश्यकता?
यही हाल तब हुआ था जब विश्व के कुछ भारतीय संस्कृति प्रेमियों ने हिंदी को भारत की भाषा मानते हुए उसे "संयुक्त राष्ट्र संघ" में उचित स्थान दिलवाने के लिए "विश्व हिंदी सम्मलेन " के आयोजन कि नींव रखी.पहले दो सम्मलेन क्रमशः नागपुर व मॉरिसस में आयोजित हुए,मगर जब तृतीय विश्व हिंदी सम्मलेन दिल्ली में आयोजित किया गया तो सभी हिंदी प्रेमियों का उत्साह ठंडा पड़ गया,क्यों कि उन्हों ने देखा कि हिंदी स्वयं अपने ही देश में सम्मानित नहीं है.इस सु-अवसर पर तत्कालीन प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरागांधी व अन्य अधिकारियों ने अपना अभिभाषण तक हिंदी में नहीं पढ़ा.जो मशौदा तैयार किया गया था वह भी अंग्रेजी में था.
दुर्भाग्य से आज भी मैं जब हिंदी पखवाड़े की स्थिति देखता हूँ तो कुछ ऐसी ही पाता हूँ,अधिकारी गण अपने समापन भाषण को हिंदी में देने में हमेशा ही असमर्थ होतें हैं.क्या ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री मि.चर्चिल सही कहते थे कि-
"हमने ही भारतीयों को सभ्य बनाया है,अन्यथा न तो इन की कोई भाषा थी न ही साहित्य."
अब रही बात भूषा की तो भारतीय वेश-भूषा यानि धोती-कुर्ता को या तो नेता पहनतें हैं या फिर अभिनेता.आम आदमी अपनी देशी वेश भूषा में न जाने क्यों स्वयं को दिखावटी सा महसूस करता है.न जाने क्यों उसे शर्म सी आती है इसे पहनने में.क्या जापानियों को,या चीनियों को अपनी पारंपरिक वेश-भूषा पहनने में ऐसी शर्म आती होगी ? क्या अरब देशों के बादशाह या फिर आम नागरिक अपनी भूषा को पहनने में शरमातें होंगे? क्या उन्हें अपनी वेश भूषा से किसी प्रकार कि व्यवसायिक हानि हुई ? शायद नहीं मगर हमारे भारतीयों को इन सारी बाधाओं का सामना करना पड़ता है,उसके अपने देशवासी उसको ऐसे कपड़ों में देख उस का मखोल बनाना शुरू कर देतें हैं या फिर उसे "असामान्य"(ABNORMAL) का खिताब दे देतें हैं.अब वह करे तो क्या करे ? इस किम्कर्तव्य-विमूढ़ की स्थिति में वह तुरंत ही कमीज -पतलून या फिर आधुनिक जींस- T-SHIRT पहन कर पागलों की तरह घूमने पर विवश हो जाता है,या कहूँ कि खुश रहता है.अब उसे कोई टोकता नहीं है .अब सब को सामान्य लगता है."गुलामी यहाँ सामान्य है,स्वतंत्रता असामान्य.चाहें वह विचारों कि हो या भाषा की या फिर व्यक्तिगत रहन-सहन की".हमें खुद पर कभी नाज़ नहीं होता अपितु बगल वाले पर ज्यादा होता है.हमारा आत्मविश्वास बड़ा ही दुर्बल है.हमें नक़ल करना इतना अच्छा लगता है की हम भूल जातें है,नक़ल सिर्फ अनुकूल चीजों की, की जाती है न की प्रति कूल की.अब कोई गर्मी के वातावरण में मोटे-मोटे कपडे(जींस) पहने तो यह कहाँ की अनुकूलता.मगर हमें इस बात का होश कहाँ.लोग हमें पागल बना रहें हैं और हम बन रहें हैं.हम न चाहते हुए भी वह पहन रहें जो दुसरे हमें पहनाना चाहतें हैं.भले ही उन कपड़ों में हमें आराम नाम की कोई चीज नजर नहीं आती.मगर बस ऊपरी तौर पर हम प्रोफेशनल दिखने के लिए ऐसा करतें हैं.और इस के आदी बन जातें हैं.फिर हमें वही सब भाने लगता है.यह कहना गलत ना होगा की हमारी भारतीय वेश-भूषा मात्र मध्यम वर्गीय और कुछ उच्च वर्गीय महिलाओं द्वारा ही पारंपरिक रूप में प्रयोग में लायी जाती है,अन्यथा पुरुष तो स्वयं को आज भी ब्रिटिश गुलाम ही मानतें हैं.कहने का अर्थ है की मात्र महिलाएं ही हैं जो आज भी भारतीय संस्कृति को जीवित रखें हुए हैं,और हम कहतें हैं की हमारा देश पुरुष प्रधान देश है.भला गुलाम मानसिकता कभी प्रधान हो सकती है क्या?
और किसी देश की संस्कृति उस देश की भाषा और भूषा का ही मिला जुला रूप होती है,तो हुआ न हमारा देश ऐसा देश जिसकी न कोई भाषा है न कोई भूषा,और न ही कोई संस्कृति.मुझे बड़ा ही अफ़सोस है यह कहने में कि
ऐसे देश को मैं कैसे महान कहूँ.
कैसे कहूँ -मेरा भारत महान
(प्रतियोगिता दर्पण के अप्रेल अंक से प्रेरित)
"आजाद होने के बाद ,जब हमारे देश को गणतांत्रिक देश घोषित किया गया ,सरकार ने दुनिया के सब देशों से अपने राजनीतिक सम्बन्ध बनाने की श्रंखला में ,1952 में श्रीमती विजय लक्ष्मी पंडित को रूस में भारत का राजदूत नियुक्त किया तो जब वहां के सम्बंधित अधिकारीयों ने उन से प्रमाण पत्र मांगे तो श्रीमती पंडित ने जब प्रमाण पत्र दिखाए तो उन्हों ने उन प्रमाण पत्रों को स्वीकार करने से साफ़ मना कर दिया क्यों कि वे सब प्रमाण पत्र भारतीय भाषा में ना हो कर अंग्रेजी भाषा में थे ,जो कि भारत की गुलामी की भाषा थी.और किसी गुलाम देश के साथ राजनयिक सम्बन्ध स्थापित करने का प्रश्न ही नहीं उठता.
अधिकारियों ने उन से पूंछा कि "क्या भारत की अपनी कोई भाषा नहीं,क्या अंग्रेजों के आने से पहले आप गूंगे थे ?" मगर हमने उस अपमान को हंस कर सहन कर लिया, आज तक हम में कोई बदलाव नहीं हुआ.आज भी हमारी पुस्तकों से लेकर प्रमाण पत्र तक सब में अंग्रेजी पुती रहती है.
हर साल सरकार हिंदी पखवाड़े को ले कर करोडो रुपयों में आग लगा देती है,यह कह कर कि हम हिंदी सिखा रहें हैं.अरे भाई ऐसी जगह पैसा क्यों फूंकते हो जहाँ उसकी आवश्यकता ही नहीं.क्या ब्रिटेन अंग्रेजी पखवाडा मनाता है.या चीन चीनी महीना मनाता है.क्या आप ने किसी देश को अपनी भाषा का अपने लोगों में ही प्रचार-प्रसार करते देखा है.मगर यह हमारा दुर्भाग्य है.
विश्व के सभी सम्मेलनों में विभिन्न देशों के राजनयिक(नेता लोग) अपनी राष्ट्र भाषा में ही भाषण देतें हैं,वे इस के बारे में कम चिंतित होते हैं कि किसी को उनकी भाषा समझ में आ रही है या नहीं.मगर हमें तो जैसे दिखाबे का बड़ा बुरा चश्का लगा रहता है.हमारे नेता बस अंग्रेजी में ही बोलतें हैं.अन्य सभी राष्ट्रों ने अनुवादक रखें होतें हैं दुसरे नेताओं कि बात समझाने के लिए मगर हमारे नेता तो बेचारे किसी अनुवादक कि नौकरी ही खा जातें हैं.किसी भी देश में भारतीय भाषा के लिए अनुवादक रखने कि कोई आवश्यकता ही नहीं पड़ती.हम चाहें सभी भाषाओँ के अनुवादक रख कर खर्च कर लें मगर किसी और को क्यों खर्च करने दें?
एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मलेन में जब हमारे देश के पहले प्रधानमंत्री कि बारी आई तो सभी को बड़ी उत्सुकता थी कि भारत की आवाज सुनने का मौका सभी को मिलेगा.मगर उन को निराशा तब हाथ लगी जब माननीय प्रधानमंत्री ने अंग्रेजी में भाषण प्रारम्भ किया.कितना बुरा लगा होगा सभी को कि उन के अनुवादक लोग तो बेचारे दो महीने से हिंदी का अभ्यास कर रहे थे,मगर इन महोदय ने उनकी पूरी मेहनत पर पानी फेर दिया.
मुझे तो उन अनुवादकों पर दया आ रही है,क्यों कि जहाँ तक मैं सोचता हूँ उन को तो अगले ही दिन नौकरी से यह कह कर निकाल दिया गया होगा कि भारतीय नेता तो हिंदी में बोलतें ही नहीं हैं.तो आप की क्या आवश्यकता?
यही हाल तब हुआ था जब विश्व के कुछ भारतीय संस्कृति प्रेमियों ने हिंदी को भारत की भाषा मानते हुए उसे "संयुक्त राष्ट्र संघ" में उचित स्थान दिलवाने के लिए "विश्व हिंदी सम्मलेन " के आयोजन कि नींव रखी.पहले दो सम्मलेन क्रमशः नागपुर व मॉरिसस में आयोजित हुए,मगर जब तृतीय विश्व हिंदी सम्मलेन दिल्ली में आयोजित किया गया तो सभी हिंदी प्रेमियों का उत्साह ठंडा पड़ गया,क्यों कि उन्हों ने देखा कि हिंदी स्वयं अपने ही देश में सम्मानित नहीं है.इस सु-अवसर पर तत्कालीन प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरागांधी व अन्य अधिकारियों ने अपना अभिभाषण तक हिंदी में नहीं पढ़ा.जो मशौदा तैयार किया गया था वह भी अंग्रेजी में था.
दुर्भाग्य से आज भी मैं जब हिंदी पखवाड़े की स्थिति देखता हूँ तो कुछ ऐसी ही पाता हूँ,अधिकारी गण अपने समापन भाषण को हिंदी में देने में हमेशा ही असमर्थ होतें हैं.क्या ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री मि.चर्चिल सही कहते थे कि-
"हमने ही भारतीयों को सभ्य बनाया है,अन्यथा न तो इन की कोई भाषा थी न ही साहित्य."
अब रही बात भूषा की तो भारतीय वेश-भूषा यानि धोती-कुर्ता को या तो नेता पहनतें हैं या फिर अभिनेता.आम आदमी अपनी देशी वेश भूषा में न जाने क्यों स्वयं को दिखावटी सा महसूस करता है.न जाने क्यों उसे शर्म सी आती है इसे पहनने में.क्या जापानियों को,या चीनियों को अपनी पारंपरिक वेश-भूषा पहनने में ऐसी शर्म आती होगी ? क्या अरब देशों के बादशाह या फिर आम नागरिक अपनी भूषा को पहनने में शरमातें होंगे? क्या उन्हें अपनी वेश भूषा से किसी प्रकार कि व्यवसायिक हानि हुई ? शायद नहीं मगर हमारे भारतीयों को इन सारी बाधाओं का सामना करना पड़ता है,उसके अपने देशवासी उसको ऐसे कपड़ों में देख उस का मखोल बनाना शुरू कर देतें हैं या फिर उसे "असामान्य"(ABNORMAL) का खिताब दे देतें हैं.अब वह करे तो क्या करे ? इस किम्कर्तव्य-विमूढ़ की स्थिति में वह तुरंत ही कमीज -पतलून या फिर आधुनिक जींस- T-SHIRT पहन कर पागलों की तरह घूमने पर विवश हो जाता है,या कहूँ कि खुश रहता है.अब उसे कोई टोकता नहीं है .अब सब को सामान्य लगता है."गुलामी यहाँ सामान्य है,स्वतंत्रता असामान्य.चाहें वह विचारों कि हो या भाषा की या फिर व्यक्तिगत रहन-सहन की".हमें खुद पर कभी नाज़ नहीं होता अपितु बगल वाले पर ज्यादा होता है.हमारा आत्मविश्वास बड़ा ही दुर्बल है.हमें नक़ल करना इतना अच्छा लगता है की हम भूल जातें है,नक़ल सिर्फ अनुकूल चीजों की, की जाती है न की प्रति कूल की.अब कोई गर्मी के वातावरण में मोटे-मोटे कपडे(जींस) पहने तो यह कहाँ की अनुकूलता.मगर हमें इस बात का होश कहाँ.लोग हमें पागल बना रहें हैं और हम बन रहें हैं.हम न चाहते हुए भी वह पहन रहें जो दुसरे हमें पहनाना चाहतें हैं.भले ही उन कपड़ों में हमें आराम नाम की कोई चीज नजर नहीं आती.मगर बस ऊपरी तौर पर हम प्रोफेशनल दिखने के लिए ऐसा करतें हैं.और इस के आदी बन जातें हैं.फिर हमें वही सब भाने लगता है.यह कहना गलत ना होगा की हमारी भारतीय वेश-भूषा मात्र मध्यम वर्गीय और कुछ उच्च वर्गीय महिलाओं द्वारा ही पारंपरिक रूप में प्रयोग में लायी जाती है,अन्यथा पुरुष तो स्वयं को आज भी ब्रिटिश गुलाम ही मानतें हैं.कहने का अर्थ है की मात्र महिलाएं ही हैं जो आज भी भारतीय संस्कृति को जीवित रखें हुए हैं,और हम कहतें हैं की हमारा देश पुरुष प्रधान देश है.भला गुलाम मानसिकता कभी प्रधान हो सकती है क्या?
और किसी देश की संस्कृति उस देश की भाषा और भूषा का ही मिला जुला रूप होती है,तो हुआ न हमारा देश ऐसा देश जिसकी न कोई भाषा है न कोई भूषा,और न ही कोई संस्कृति.मुझे बड़ा ही अफ़सोस है यह कहने में कि
ऐसे देश को मैं कैसे महान कहूँ.
कैसे कहूँ -मेरा भारत महान
(प्रतियोगिता दर्पण के अप्रेल अंक से प्रेरित)