यह लेख मेरा नहीं अपितु श्री अरविन्द जय तिलक जी का है,जो एक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं] यह लेख एक समाचार पत्र में प्रकाशित हुआ था,उसी की क प्रतिलिपि में अपने कुछ अंग्रेजी हिंदी प्रेमी मित्रों के लिए पेश कर रहा हूँ)
हिंदी
के प्रचार-प्रसार को लेकर अब शोक जताने, छाती पीटने और बेवजह आंसू टपकाने की जरूरत
नहीं है। हिंदी अपने दायरे से बाहर निकल विश्वजगत को अचंभित और प्रभावित कर रही
है। एक भाषा के तौर पर उसने अपने सभी प्रतिद्वंद्वियों को पीछे छोड़ दिया है। विगत
दो दशकों में जिस तेजी से हिंदी का अंतरराष्ट्रीय विकास हुआ है और उसके प्रति
लोगों का रुझान बढ़ा है वह उसकी लोकप्रियता को रेखांकित करता है। शायद ही विश्व
में किसी भाषा का हिंदी की तर्ज पर इस तरह फैलाव हुआ हो। इसकी क्या वजहें हैं, यह
विमर्श और शोध का विषय है। लेकिन हिंदी को नया मुकाम देने का कार्य कर रही
संस्थाएं, सरकारी मशीनरी और छोटे-बड़े समूह उसका श्रेय लेने की कोशिश जरूर कर रहे
हैं। यह गलत भी नहीं है। यूजर्स की लिहाज से देखें तो 1952 में हिंदी विश्व में
पांचवें स्थान पर थी। 1980 के दशक में वह चीनी और अंग्रेजी भाषा के बाद तीसरे
स्थान पर आ गई। आज उसकी लोकप्रियता लोगों के सिर चढ़कर बोल रही है और वह चीनी भाषा
के बाद दूसरे स्थान पर आ गई है। भविष्य भी हिंदी का ही है। कल वह चीनी भाषा को
पछाड़ नंबर एक होने का गौरव हासिल कर ले तो आश्चर्य की बात नहीं होगी।
निश्चित
ही इसके लिए वे सभी संस्थाएं और समूह साधुवाद के पात्र हैं जो हिंदी के विकास व
प्रचार-प्रसार के लिए काम कर रहे हैं, लेकिन इस तथ्य से भी इन्कार नहीं किया जा
सकता कि बाजार ने हिंदी की स्वीकार्यता को नई ऊंचाई दी है और विश्व को आकर्षित
किया है। यह सार्वभौमिक सच है कि जो भाषाएं रोजगार और संवादपरक नहीं बन पातीं उनका
अस्तित्व खत्म हो जाता है। मैक्सिको की पुरातन भाषाओं में से एक अयापनेको, यूक्रेन
की कैरेम, ओकलाहामा की विचिता, इंडोनेशिया की लेंगिलू भाषा आज अगर अपने अस्तित्व
के संकट से गुजर रही हैं तो उसके लिए उनका रोजगारपरक और संवादविहीन होना मुख्य
कारण हैं। एक अनुमान के मुताबिक दुनिया भर में तकरीबन 6900 मातृभाषाएं बोली जाती
हैं। इनमें से तकरीबन 2500 मातृभाषाएं अपने अस्तित्व के संकट से गुजर रही हैं।
इनमें से कुछ को 'चिंताजनक स्थिति वाली भाषाओं की सूची' में रख दिया गया है।
संयुक्त राष्ट्र द्वारा कराए गए एक तुलनात्मक अध्ययन से खुलासा हुआ है कि 2001 में
विलुप्त प्राय मातृभाषाओं की संख्या जो 900 के आसपास थी वह आज तीन गुने से भी पार
जा पहुंची हैं। जानना जरूरी है कि दुनिया भर में तकरीबन दो सैकड़ा ऐसी मातृभाषाएं
हैं जिनके बोलने वालों की संख्या महज दस-बारह रह गई है। यह चिंताजनक स्थिति है।
दूसरी
ओर अगर वैश्विक भाषा अंग्रेजी के फैलाव की बात करें तो नि:संदेह उसके ढेर सारे
कारण हो सकते हैं, लेकिन वह अपने शानदार संवाद और व्यापारिक नजरिए के कारण भी अपना
विश्वव्यापी चरित्र गढ़ने में सफल रही है। आज हिंदी भाषा भी उसी चरित्र को अपनाती
दिख रही है। वह विश्व संवाद की एक सशक्त भाषा के तौर पर उभर रही है और विश्व
समुदाय उसका स्वागत कर रहा है। कभी भारतीय ग्रंथों, विशेष रूप से संस्कृत भाषा की
गंभीरता और उसकी उपादेयता और संस्कृत कवियों व साहित्कारों की साहित्यिक रचना का
मीमांसा करने वाला यूरोपीय देश जर्मनी संस्कृत भाषा को लेकर आत्ममुग्ध हुआ करता
था। वेदों, पुराणों और उपनिषदों को जर्मन भाषा में अनूदित कर साहित्य के प्रति
अपने अनुराग को संदर्भित करता था। आज वह संस्कृत की तरह हिंदी को भी उतनी ही
महत्ता देते देखा जा रहा है। जर्मन के लोग हिंदी को एशियाई आबादी के एक बड़े तबके
से संपर्क साधने का सबसे दमदार हथियार मानने लगे हैं। जर्मनी के हाइडेलबर्ग, लोअर
सेक्सोनी के लाइपजिंग, बर्लिन के हंबोलडिट और बॉन विश्वविद्यालय के अलावा दुनिया
के कई शिक्षण संस्थाओं में अब हिंदी भाषा पाठ्यक्रम में शामिल कर ली गई हैं।
छात्र
समुदाय इस भाषा में रोजगार की व्यापक संभावनाएं भी तलाशने लगा है। एक आंकडे़ के
मुताबिक दुनिया भर के 150 विश्वविद्यालयों और कई छोटे-बड़े शिक्षण संस्थाओं में
रिसर्च स्तर तक अध्ययन-अध्यापन की पूरी व्यवस्था की गई है। यूरोप से ही तकरीबन दो
दर्जन पत्र-पत्रिकाएं हिंदी में प्रकाशित होती हैं। सुखद यह है कि पाठकों की संख्या
लगातार बढ़ती जा रही है। एक सर्वेक्षण के मुताबिक आज विश्व में आधा अरब लोग हिंदी
बोलते हैं और तकरीबन एक अरब लोग हिंदी बखूबी समझते हैं। वेब, विज्ञापन, संगीत,
सिनेमा और बाजार ऐसा कोई क्षेत्र नहीं बचा है जहां हिंदी अपने पांव पसारती न दिख
रही हो। वैश्वीकरण के माहौल में अब हिंदी विदेशी कंपनियों के लिए भी लाभ की एक
आकर्षक भाषा व जरिया बन गई है। उन्हें अपने उत्पादों को बड़ी आबादी तक पहुंचाने के
लिए हिंदी को अपना माध्यम बनाना रास आ रहा है। यानी पूरा कॉरपोरेट कल्चर ही अब
हिंदीमय होता जा रहा है। हिंदी के बढ़ते दायरे से उत्साहित सरकार की संस्थाएं भी
जो कभी हिंदी के प्रचार-प्रसार में खानापूर्ति करती देखी जाती थीं वे अब तल्लीनता
से हिंदी दिवस, हिंदी सप्ताह और हिंदी पखवाड़ा मना रही हैं। हिंदी भाषा के विकास और
उसके फैलाव के लिए यह शुभ संकेत है।
[लेखक
अरविंद जयतिलक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं] हिंदी
के प्रचार-प्रसार को लेकर अब शोक जताने, छाती पीटने और बेवजह आंसू टपकाने की जरूरत
नहीं है। हिंदी अपने दायरे से बाहर निकल विश्वजगत को अचंभित और प्रभावित कर रही
है। एक भाषा के तौर पर उसने अपने सभी प्रतिद्वंद्वियों को पीछे छोड़ दिया है। विगत
दो दशकों में जिस तेजी से हिंदी का अंतरराष्ट्रीय विकास हुआ है और उसके प्रति
लोगों का रुझान बढ़ा है वह उसकी लोकप्रियता को रेखांकित करता है। शायद ही विश्व
में किसी भाषा का हिंदी की तर्ज पर इस तरह फैलाव हुआ हो। इसकी क्या वजहें हैं, यह
विमर्श और शोध का विषय है। लेकिन हिंदी को नया मुकाम देने का कार्य कर रही
संस्थाएं, सरकारी मशीनरी और छोटे-बड़े समूह उसका श्रेय लेने की कोशिश जरूर कर रहे
हैं। यह गलत भी नहीं है। यूजर्स की लिहाज से देखें तो 1952 में हिंदी विश्व में
पांचवें स्थान पर थी। 1980 के दशक में वह चीनी और अंग्रेजी भाषा के बाद तीसरे
स्थान पर आ गई। आज उसकी लोकप्रियता लोगों के सिर चढ़कर बोल रही है और वह चीनी भाषा
के बाद दूसरे स्थान पर आ गई है। भविष्य भी हिंदी का ही है। कल वह चीनी भाषा को
पछाड़ नंबर एक होने का गौरव हासिल कर ले तो आश्चर्य की बात नहीं होगी।
निश्चित
ही इसके लिए वे सभी संस्थाएं और समूह साधुवाद के पात्र हैं जो हिंदी के विकास व
प्रचार-प्रसार के लिए काम कर रहे हैं, लेकिन इस तथ्य से भी इन्कार नहीं किया जा
सकता कि बाजार ने हिंदी की स्वीकार्यता को नई ऊंचाई दी है और विश्व को आकर्षित
किया है। यह सार्वभौमिक सच है कि जो भाषाएं रोजगार और संवादपरक नहीं बन पातीं उनका
अस्तित्व खत्म हो जाता है। मैक्सिको की पुरातन भाषाओं में से एक अयापनेको, यूक्रेन
की कैरेम, ओकलाहामा की विचिता, इंडोनेशिया की लेंगिलू भाषा आज अगर अपने अस्तित्व
के संकट से गुजर रही हैं तो उसके लिए उनका रोजगारपरक और संवादविहीन होना मुख्य
कारण हैं। एक अनुमान के मुताबिक दुनिया भर में तकरीबन 6900 मातृभाषाएं बोली जाती
हैं। इनमें से तकरीबन 2500 मातृभाषाएं अपने अस्तित्व के संकट से गुजर रही हैं।
इनमें से कुछ को 'चिंताजनक स्थिति वाली भाषाओं की सूची' में रख दिया गया है।
संयुक्त राष्ट्र द्वारा कराए गए एक तुलनात्मक अध्ययन से खुलासा हुआ है कि 2001 में
विलुप्त प्राय मातृभाषाओं की संख्या जो 900 के आसपास थी वह आज तीन गुने से भी पार
जा पहुंची हैं। जानना जरूरी है कि दुनिया भर में तकरीबन दो सैकड़ा ऐसी मातृभाषाएं
हैं जिनके बोलने वालों की संख्या महज दस-बारह रह गई है। यह चिंताजनक स्थिति है।
दूसरी
ओर अगर वैश्विक भाषा अंग्रेजी के फैलाव की बात करें तो नि:संदेह उसके ढेर सारे
कारण हो सकते हैं, लेकिन वह अपने शानदार संवाद और व्यापारिक नजरिए के कारण भी अपना
विश्वव्यापी चरित्र गढ़ने में सफल रही है। आज हिंदी भाषा भी उसी चरित्र को अपनाती
दिख रही है। वह विश्व संवाद की एक सशक्त भाषा के तौर पर उभर रही है और विश्व
समुदाय उसका स्वागत कर रहा है। कभी भारतीय ग्रंथों, विशेष रूप से संस्कृत भाषा की
गंभीरता और उसकी उपादेयता और संस्कृत कवियों व साहित्कारों की साहित्यिक रचना का
मीमांसा करने वाला यूरोपीय देश जर्मनी संस्कृत भाषा को लेकर आत्ममुग्ध हुआ करता
था। वेदों, पुराणों और उपनिषदों को जर्मन भाषा में अनूदित कर साहित्य के प्रति
अपने अनुराग को संदर्भित करता था। आज वह संस्कृत की तरह हिंदी को भी उतनी ही
महत्ता देते देखा जा रहा है। जर्मन के लोग हिंदी को एशियाई आबादी के एक बड़े तबके
से संपर्क साधने का सबसे दमदार हथियार मानने लगे हैं। जर्मनी के हाइडेलबर्ग, लोअर
सेक्सोनी के लाइपजिंग, बर्लिन के हंबोलडिट और बॉन विश्वविद्यालय के अलावा दुनिया
के कई शिक्षण संस्थाओं में अब हिंदी भाषा पाठ्यक्रम में शामिल कर ली गई हैं।
छात्र
समुदाय इस भाषा में रोजगार की व्यापक संभावनाएं भी तलाशने लगा है। एक आंकडे़ के
मुताबिक दुनिया भर के 150 विश्वविद्यालयों और कई छोटे-बड़े शिक्षण संस्थाओं में
रिसर्च स्तर तक अध्ययन-अध्यापन की पूरी व्यवस्था की गई है। यूरोप से ही तकरीबन दो
दर्जन पत्र-पत्रिकाएं हिंदी में प्रकाशित होती हैं। सुखद यह है कि पाठकों की संख्या
लगातार बढ़ती जा रही है। एक सर्वेक्षण के मुताबिक आज विश्व में आधा अरब लोग हिंदी
बोलते हैं और तकरीबन एक अरब लोग हिंदी बखूबी समझते हैं। वेब, विज्ञापन, संगीत,
सिनेमा और बाजार ऐसा कोई क्षेत्र नहीं बचा है जहां हिंदी अपने पांव पसारती न दिख
रही हो। वैश्वीकरण के माहौल में अब हिंदी विदेशी कंपनियों के लिए भी लाभ की एक
आकर्षक भाषा व जरिया बन गई है। उन्हें अपने उत्पादों को बड़ी आबादी तक पहुंचाने के
लिए हिंदी को अपना माध्यम बनाना रास आ रहा है। यानी पूरा कॉरपोरेट कल्चर ही अब
हिंदीमय होता जा रहा है। हिंदी के बढ़ते दायरे से उत्साहित सरकार की संस्थाएं भी
जो कभी हिंदी के प्रचार-प्रसार में खानापूर्ति करती देखी जाती थीं वे अब तल्लीनता
से हिंदी दिवस, हिंदी सप्ताह और हिंदी पखवाड़ा मना रही हैं। हिंदी भाषा के विकास और
उसके फैलाव के लिए यह शुभ संकेत है।