इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों का मुद्दा जिस
प्रकार से भारतीय राजनीति में छाया हुआ है उस से एसा लगता है भारतीय नेताओं एक बार
फिर से विचार कर लेना चाहिए की क्या वे सिर्फ अपनी निजी चिंताओं के प्रति जागरूक
हैं या फिर देश के विषय में भी सोचते हैं. आप को बता दें कि इन मशीनों की सुरक्षा
में कई सिविल अधिकारी, कई अध्यापक या राज्य के वे कर्मचारी जो बिना किसी प्री-प्लानिग
के नियुक्त होतें हैं तथा अर्ध सैनिक बल के साथ-साथ प्रादेशिक पुलिस रहती है. इतने
बड़े सुरक्षा बेड़े में सेंध लगाना किसी भी मास्टर माइंड के लिए असंभव है. जहाँ तक
पहले के ज़माने में जो बैलेट सिस्टम चलता था उसमे गड़बड़ियो की सम्भावना बहुत ज्यादा
होती थी. ये सब जानकारियां मुझे मेरे पिता से प्राप्त हुईं जिन्होंने अपनी
नियुक्ति के दौरान अनेकों चुनावों में पोलिंग बूथ के सञ्चालन में भागीदारी निभाई. बैलेट
सिस्टम में यदि आप एक बैलेट पैड किसी तरीके से चुरा लेते हो तो एक एक मतदाता
मनचाहे वोट डाल सकता था. यह काम बहुत ही आसान होता था. और इसके बारे में विरोधी
दलों को शायद ही भनक लग पाती थी. यदि कोई वोटिंग मशीनों के साथ छेड़छाड़ कर सकता है जो
की भारी सुरक्षा में रहती हैं. तो फिर पुरानी बैलेट सिस्टम ही कहाँ सुरक्षित रहेगा.
और फिर एक तरफ तो हम डिजिटल इंडिया की बात करें और दूसरी तरफ हम पुरातनता की बात
करें तो यह दोगलापन तो सिर्फ भारत में ही देखने को मिल सकता है. जिस देश में छात्रो
की उत्तर पुस्तिकाएं कंप्यूटर से जांची जाती हैं. जहाँ बैंक पुर्णतः इन्टरनेट से
जुड़े हैं. जहाँ सब कुछ ऑनलाइन होने जा रहा है, वहां मेरी सलाह है कि वोटिंग भी
ऑनलाइन हो. क्या हम प्रत्येक मतदाता को उसके आधार नंबर से जोड़कर उस से मतदान नहीं
करवा सकते? क्या OTP के माध्यम यह सब संभव नहीं है? क्या चुनाव आयोग के योग्य पदाधिकारी
इस पर विचार नहीं कर सकते? इसे एक विकल्प के रूप में रखा जाये जैसे लोग मनुअल
बैंकिंग के साथ साथ ऑनलाइन बैंकिंग का आप्शन चुनते हैं. उसी तरह ऑनलाइन वोटिंग का
विकल्प भी होना चाहिए फिर देखिये भारत में युवा मतदाता कैसे वोटिंग एप्प का सदुपयोग
करते हैं. जय हिन्द.
हरेक क्षण मैं जिन्दगी का जी रहा हूँ , ज्ञान का प्याला अधर से पी रहा हूँ |
बुधवार, 12 अप्रैल 2017
बुधवार, 2 नवंबर 2016
क्यों करतें हैं सोमवार व्रत (व्यंग्य )
सोमवार सदा से पवित्र माना जाता है, सदा ही लोग इस दिन व्रत कर ते आये हैं। वे लोग जो धर्म कर्म की कम जानकारी रखते हैं , वे इस बात से हमेशा चिंताग्रस्त रहते हैं कि सोमवार का वृत्त क्यों रखा जाता है. मेरे मित्र सेनादास ने यही प्रश्न बाबा लटूरी आईआइटीयन से जब किया तो वे थोड़ी टेंसन में आ गये मगर फिर सोच कर उन्होंने जो मेरे प्रश्नों का उत्तर अपनी टेक्नीकल थिओरी के द्वारा दिया उसे सुन कर मेरे मित्र सेनादास के दिमाग के सारे स्रोत खुल गए -
१. "सोमवार वीक का पहला दिन होता है यानि कि लंबा वीकेंड के बाद पुनः ऑफिस जाना। " यह बात इतनी भयावह और डरावनी होती हैं की आदमी संडे का आनंद भूल सोमवार के गम में डूब जाता है। कई बार बोस नाम का प्राणी इतना डरावना महसूस होने लगता है की आदमी मजबूरीवश भूतनाथ यानि की महादेव की शरण में चला जाता है।
२. कई बार व्यक्ति अपने वीकेंड में किये गए पाप-पूर्ण कार्यकलापों के पश्चाताप के फलस्वरूप प्राप्त गिल्टी फीलिंग को मिनिमाइज करने के लिए आशुतोष भगवान् की पूजा करता है।
३. कई लोग वीकेंड में पत्नी द्वारा की गई अंधाधुन्द शॉपिंग में हुए खर्चे का खामियाज़ा पूरा करते हैं। ताकि एक दिन व्रत रख कर कुछ तो पैसा बचे। इस से भगवान् महादेव भी प्रसन्न हो जाते हैं। और...
४. "अलग अलग लोग अलग -२ कारण बच्चा सेनादास ! " इसी बात पर बाबा लटूरी आईआइटीयन का एक श्लोक याद कर लो।
"भिन्न भिन्न मत: भिन्न भिन्न व्रत:,
किमे बॉसेन भय: कृते सोमवार व्रत: .
किमे कार्यं भय: कृते सोमवार व्रत:.
किमे पापकर्मणा भय: .
स: दुर्लभ प्राणी स यो प्रियं भजन्ते महादेव।"
इस प्रकार बड़े भारी मन से सेनादास ने अपनी डायरी में यह श्लोक नोट कर के यूनिफार्म पर इस्तरी करना प्रारम्भ कर दिया। कल की परेड की तैयारी भी करनी थी। यह दर्द तो सिविलियन बाबा लटूरी आईआइटीयन के स्वप्न संसार में दूर दूर तक न होगा। आखिर सेनादास ने एक और लाइन अपनी ओर से श्लोक में ऐड कर दी -
" स: , यो जानामि सेना : व्यथा: ,स: कुरतु किम वृत:। "
हर हर महादेव !
१. "सोमवार वीक का पहला दिन होता है यानि कि लंबा वीकेंड के बाद पुनः ऑफिस जाना। " यह बात इतनी भयावह और डरावनी होती हैं की आदमी संडे का आनंद भूल सोमवार के गम में डूब जाता है। कई बार बोस नाम का प्राणी इतना डरावना महसूस होने लगता है की आदमी मजबूरीवश भूतनाथ यानि की महादेव की शरण में चला जाता है।
२. कई बार व्यक्ति अपने वीकेंड में किये गए पाप-पूर्ण कार्यकलापों के पश्चाताप के फलस्वरूप प्राप्त गिल्टी फीलिंग को मिनिमाइज करने के लिए आशुतोष भगवान् की पूजा करता है।
३. कई लोग वीकेंड में पत्नी द्वारा की गई अंधाधुन्द शॉपिंग में हुए खर्चे का खामियाज़ा पूरा करते हैं। ताकि एक दिन व्रत रख कर कुछ तो पैसा बचे। इस से भगवान् महादेव भी प्रसन्न हो जाते हैं। और...
४. "अलग अलग लोग अलग -२ कारण बच्चा सेनादास ! " इसी बात पर बाबा लटूरी आईआइटीयन का एक श्लोक याद कर लो।
"भिन्न भिन्न मत: भिन्न भिन्न व्रत:,
किमे बॉसेन भय: कृते सोमवार व्रत: .
किमे कार्यं भय: कृते सोमवार व्रत:.
किमे पापकर्मणा भय: .
स: दुर्लभ प्राणी स यो प्रियं भजन्ते महादेव।"
इस प्रकार बड़े भारी मन से सेनादास ने अपनी डायरी में यह श्लोक नोट कर के यूनिफार्म पर इस्तरी करना प्रारम्भ कर दिया। कल की परेड की तैयारी भी करनी थी। यह दर्द तो सिविलियन बाबा लटूरी आईआइटीयन के स्वप्न संसार में दूर दूर तक न होगा। आखिर सेनादास ने एक और लाइन अपनी ओर से श्लोक में ऐड कर दी -
" स: , यो जानामि सेना : व्यथा: ,स: कुरतु किम वृत:। "
हर हर महादेव !
रविवार, 30 अक्टूबर 2016
इस दिवाली ह्रदय जलायें
जब कहीं अँधेरा होता है,
जब कोई भूंखा सोता है,
जब कोई बच्चा रोता है,
जब कोई अपना खोता हैं,
जब दर्द किसी को होता है,
तब दर्द कवि को होता है.
और ह्रदय कवि का रोता है.
जब कहीं दिवाली होती है
और कहीं अँधेरा होता है.
जो पेट भरे हों माखन से
उनको लड्डू मिल जाते हैं।
जिनको ना रोटी मिल पाती
वे भूंखो ही सो जाते हैं.
परंपरागत दिवाली तो सदा मनी है , सदा मानेगी।
इस बार नया एक चलन चलाएं।
भरपेटों को क्या स्वीट खिलाना,
कुछ भूखों को भोज कराएं।
जहाँ भरा है अँधियारा उन,
झोपड़ियों में दीप जलाएं।
इस दिवाली कुछ नया मनाएं।
दीप सदा ही जलते आये,
इस बार मित्र हम ह्रदय जलायें।
जब कोई भूंखा सोता है,
जब कोई बच्चा रोता है,
जब कोई अपना खोता हैं,
जब दर्द किसी को होता है,
तब दर्द कवि को होता है.
और ह्रदय कवि का रोता है.
जब कहीं दिवाली होती है
और कहीं अँधेरा होता है.
जो पेट भरे हों माखन से
उनको लड्डू मिल जाते हैं।
जिनको ना रोटी मिल पाती
वे भूंखो ही सो जाते हैं.
परंपरागत दिवाली तो सदा मनी है , सदा मानेगी।
इस बार नया एक चलन चलाएं।
भरपेटों को क्या स्वीट खिलाना,
कुछ भूखों को भोज कराएं।
जहाँ भरा है अँधियारा उन,
झोपड़ियों में दीप जलाएं।
इस दिवाली कुछ नया मनाएं।
दीप सदा ही जलते आये,
इस बार मित्र हम ह्रदय जलायें।
बुधवार, 18 सितंबर 2013
पागलों को परवाह है देश की,और बुद्धिजीवी बेपरवाह हैं
कल मैं दिल्ली के बजीर पुर डिपो बस स्टैंड पर खड़ा देख रहा था कि एक पागल- सा युवक सड़क पर एक डंडा लहरा कर दिल्ली सरकार का विरोध कर रहा है.लोग उस की बातों पर कोई ध्यान नहीं दे रहे थे . और देते भी क्यों वह एक पागल जो था . वह कभी -२ जोश में आ कर डंडे को जोर से हवा में लेहरा देता . वह चाहता था कि सरकार जबाव दे कि वह अपने फायदों की परवाह न करते हुए,दिल्ली में शराब पर पूरी तरह से रोक क्यों नहीं लगा देती .वह चाहता था कि देश में जो गरीबों के उत्थान / विकास के लिए जो कार्यक्रम चलाये जा रहें हैं, उन में पारदर्शिता आनी चाहिए तथा गरीबों को उन का मिलाना चाहिए . और गरीबी विकास न हो कर गरीबों का विकास होना चाहिए।क्यों कि गरीबों को राशन देनें से गरीब विकास नहीं होगा। गरीबों को रोजगार व जैसी सुविधा भी होनी चाहिए।यद्यपि मैं देख रहा था की उस के डंडे लहराने वाले कृत्य से सभी लोगों को असुविधा हो रही थी. मगर सब चुप चाप देख रहे थे ( याद रहे सुन कोई नहीं रहा था ) किसी को नहीं थी कि उस से मन करे कि उस को मन करे कि भाई तुम्हारे डंडे लहराने वाले कृत्य से सभी लोगों को असुविधा हो रही है मगर शायद एक ही व्यक्ति था जो उसे सुन भी रहा था और देख भी रहा था . और सोच भी रहा था की देखो तो हमें जो देश के तथा कथित बुद्धिजीवी बने फिरतें हैं . जो चुपचाप बस अपनी बुद्धि का उपयोग अपना जीवन काटनें में कर रहें हैं . और पागल /अर्ध विक्षिप्त लोग देश की परवाह कर रहा है.और अकेला ही आन्दोलन चला चला रहा रहा है .वह बात तो सही कर रहा है मगर पागल है और लोग उस की
तरफ सिर्फ देख रहें हैं उन के कान बंद हैं . और जिन के कान खुलें हैं वे अपनी बुद्धि के गुलाम हैं और कोई प्रतिक्रिया नहीं दे रहे हैं . वे जानतें हैं कि उस पागल की इन बातों का कोई मतलब नहीं।
मगर मैं सिर्फ इतना सोच रहा था कि -
१. क्या हम सड़क पर हो रहे किसी भी प्रकार के ड्रामे को मूक दर्शक की भांति खड़े रहेंगे या फिर उस को रोकने के लिए किसी प्रकार का कदम भी उठाएंगे।
२. आखिर कब तलक हम अपने देश में सिर्फ दिखाने के लिए बुद्धिजीवी बने रहेंगे ,और देश में,गाँव में ,सड़क पर होने वाली घटनाओं को "छोड़ो " कह कर होने देंगे।
३. क्या हमें उस पागल से सीख नहीं मिलती कि यार उस का क्या है वह तो पागल है वह तो किसी भी देश में कैसे भी रह सकता है ,मगर हमें तो शांति ,सुरक्षा चाहिए ,वह सब चाहिए जिस से आराम से जीवन कटे ज़ब वह पागल हो कर भी अन्याय के खिलाफ आवाज उठा सकता है हम क्यों चुपचाप रहतें हैं ?
शुक्रवार, 28 सितंबर 2012
हिंदी का बढ़ता दायरा
यह लेख मेरा नहीं अपितु श्री अरविन्द जय तिलक जी का है,जो एक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं] यह लेख एक समाचार पत्र में प्रकाशित हुआ था,उसी की क प्रतिलिपि में अपने कुछ अंग्रेजी हिंदी प्रेमी मित्रों के लिए पेश कर रहा हूँ)
हिंदी
के प्रचार-प्रसार को लेकर अब शोक जताने, छाती पीटने और बेवजह आंसू टपकाने की जरूरत
नहीं है। हिंदी अपने दायरे से बाहर निकल विश्वजगत को अचंभित और प्रभावित कर रही
है। एक भाषा के तौर पर उसने अपने सभी प्रतिद्वंद्वियों को पीछे छोड़ दिया है। विगत
दो दशकों में जिस तेजी से हिंदी का अंतरराष्ट्रीय विकास हुआ है और उसके प्रति
लोगों का रुझान बढ़ा है वह उसकी लोकप्रियता को रेखांकित करता है। शायद ही विश्व
में किसी भाषा का हिंदी की तर्ज पर इस तरह फैलाव हुआ हो। इसकी क्या वजहें हैं, यह
विमर्श और शोध का विषय है। लेकिन हिंदी को नया मुकाम देने का कार्य कर रही
संस्थाएं, सरकारी मशीनरी और छोटे-बड़े समूह उसका श्रेय लेने की कोशिश जरूर कर रहे
हैं। यह गलत भी नहीं है। यूजर्स की लिहाज से देखें तो 1952 में हिंदी विश्व में
पांचवें स्थान पर थी। 1980 के दशक में वह चीनी और अंग्रेजी भाषा के बाद तीसरे
स्थान पर आ गई। आज उसकी लोकप्रियता लोगों के सिर चढ़कर बोल रही है और वह चीनी भाषा
के बाद दूसरे स्थान पर आ गई है। भविष्य भी हिंदी का ही है। कल वह चीनी भाषा को
पछाड़ नंबर एक होने का गौरव हासिल कर ले तो आश्चर्य की बात नहीं होगी।
निश्चित
ही इसके लिए वे सभी संस्थाएं और समूह साधुवाद के पात्र हैं जो हिंदी के विकास व
प्रचार-प्रसार के लिए काम कर रहे हैं, लेकिन इस तथ्य से भी इन्कार नहीं किया जा
सकता कि बाजार ने हिंदी की स्वीकार्यता को नई ऊंचाई दी है और विश्व को आकर्षित
किया है। यह सार्वभौमिक सच है कि जो भाषाएं रोजगार और संवादपरक नहीं बन पातीं उनका
अस्तित्व खत्म हो जाता है। मैक्सिको की पुरातन भाषाओं में से एक अयापनेको, यूक्रेन
की कैरेम, ओकलाहामा की विचिता, इंडोनेशिया की लेंगिलू भाषा आज अगर अपने अस्तित्व
के संकट से गुजर रही हैं तो उसके लिए उनका रोजगारपरक और संवादविहीन होना मुख्य
कारण हैं। एक अनुमान के मुताबिक दुनिया भर में तकरीबन 6900 मातृभाषाएं बोली जाती
हैं। इनमें से तकरीबन 2500 मातृभाषाएं अपने अस्तित्व के संकट से गुजर रही हैं।
इनमें से कुछ को 'चिंताजनक स्थिति वाली भाषाओं की सूची' में रख दिया गया है।
संयुक्त राष्ट्र द्वारा कराए गए एक तुलनात्मक अध्ययन से खुलासा हुआ है कि 2001 में
विलुप्त प्राय मातृभाषाओं की संख्या जो 900 के आसपास थी वह आज तीन गुने से भी पार
जा पहुंची हैं। जानना जरूरी है कि दुनिया भर में तकरीबन दो सैकड़ा ऐसी मातृभाषाएं
हैं जिनके बोलने वालों की संख्या महज दस-बारह रह गई है। यह चिंताजनक स्थिति है।
दूसरी
ओर अगर वैश्विक भाषा अंग्रेजी के फैलाव की बात करें तो नि:संदेह उसके ढेर सारे
कारण हो सकते हैं, लेकिन वह अपने शानदार संवाद और व्यापारिक नजरिए के कारण भी अपना
विश्वव्यापी चरित्र गढ़ने में सफल रही है। आज हिंदी भाषा भी उसी चरित्र को अपनाती
दिख रही है। वह विश्व संवाद की एक सशक्त भाषा के तौर पर उभर रही है और विश्व
समुदाय उसका स्वागत कर रहा है। कभी भारतीय ग्रंथों, विशेष रूप से संस्कृत भाषा की
गंभीरता और उसकी उपादेयता और संस्कृत कवियों व साहित्कारों की साहित्यिक रचना का
मीमांसा करने वाला यूरोपीय देश जर्मनी संस्कृत भाषा को लेकर आत्ममुग्ध हुआ करता
था। वेदों, पुराणों और उपनिषदों को जर्मन भाषा में अनूदित कर साहित्य के प्रति
अपने अनुराग को संदर्भित करता था। आज वह संस्कृत की तरह हिंदी को भी उतनी ही
महत्ता देते देखा जा रहा है। जर्मन के लोग हिंदी को एशियाई आबादी के एक बड़े तबके
से संपर्क साधने का सबसे दमदार हथियार मानने लगे हैं। जर्मनी के हाइडेलबर्ग, लोअर
सेक्सोनी के लाइपजिंग, बर्लिन के हंबोलडिट और बॉन विश्वविद्यालय के अलावा दुनिया
के कई शिक्षण संस्थाओं में अब हिंदी भाषा पाठ्यक्रम में शामिल कर ली गई हैं।
छात्र
समुदाय इस भाषा में रोजगार की व्यापक संभावनाएं भी तलाशने लगा है। एक आंकडे़ के
मुताबिक दुनिया भर के 150 विश्वविद्यालयों और कई छोटे-बड़े शिक्षण संस्थाओं में
रिसर्च स्तर तक अध्ययन-अध्यापन की पूरी व्यवस्था की गई है। यूरोप से ही तकरीबन दो
दर्जन पत्र-पत्रिकाएं हिंदी में प्रकाशित होती हैं। सुखद यह है कि पाठकों की संख्या
लगातार बढ़ती जा रही है। एक सर्वेक्षण के मुताबिक आज विश्व में आधा अरब लोग हिंदी
बोलते हैं और तकरीबन एक अरब लोग हिंदी बखूबी समझते हैं। वेब, विज्ञापन, संगीत,
सिनेमा और बाजार ऐसा कोई क्षेत्र नहीं बचा है जहां हिंदी अपने पांव पसारती न दिख
रही हो। वैश्वीकरण के माहौल में अब हिंदी विदेशी कंपनियों के लिए भी लाभ की एक
आकर्षक भाषा व जरिया बन गई है। उन्हें अपने उत्पादों को बड़ी आबादी तक पहुंचाने के
लिए हिंदी को अपना माध्यम बनाना रास आ रहा है। यानी पूरा कॉरपोरेट कल्चर ही अब
हिंदीमय होता जा रहा है। हिंदी के बढ़ते दायरे से उत्साहित सरकार की संस्थाएं भी
जो कभी हिंदी के प्रचार-प्रसार में खानापूर्ति करती देखी जाती थीं वे अब तल्लीनता
से हिंदी दिवस, हिंदी सप्ताह और हिंदी पखवाड़ा मना रही हैं। हिंदी भाषा के विकास और
उसके फैलाव के लिए यह शुभ संकेत है।
[लेखक
अरविंद जयतिलक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं] हिंदी
के प्रचार-प्रसार को लेकर अब शोक जताने, छाती पीटने और बेवजह आंसू टपकाने की जरूरत
नहीं है। हिंदी अपने दायरे से बाहर निकल विश्वजगत को अचंभित और प्रभावित कर रही
है। एक भाषा के तौर पर उसने अपने सभी प्रतिद्वंद्वियों को पीछे छोड़ दिया है। विगत
दो दशकों में जिस तेजी से हिंदी का अंतरराष्ट्रीय विकास हुआ है और उसके प्रति
लोगों का रुझान बढ़ा है वह उसकी लोकप्रियता को रेखांकित करता है। शायद ही विश्व
में किसी भाषा का हिंदी की तर्ज पर इस तरह फैलाव हुआ हो। इसकी क्या वजहें हैं, यह
विमर्श और शोध का विषय है। लेकिन हिंदी को नया मुकाम देने का कार्य कर रही
संस्थाएं, सरकारी मशीनरी और छोटे-बड़े समूह उसका श्रेय लेने की कोशिश जरूर कर रहे
हैं। यह गलत भी नहीं है। यूजर्स की लिहाज से देखें तो 1952 में हिंदी विश्व में
पांचवें स्थान पर थी। 1980 के दशक में वह चीनी और अंग्रेजी भाषा के बाद तीसरे
स्थान पर आ गई। आज उसकी लोकप्रियता लोगों के सिर चढ़कर बोल रही है और वह चीनी भाषा
के बाद दूसरे स्थान पर आ गई है। भविष्य भी हिंदी का ही है। कल वह चीनी भाषा को
पछाड़ नंबर एक होने का गौरव हासिल कर ले तो आश्चर्य की बात नहीं होगी।
निश्चित
ही इसके लिए वे सभी संस्थाएं और समूह साधुवाद के पात्र हैं जो हिंदी के विकास व
प्रचार-प्रसार के लिए काम कर रहे हैं, लेकिन इस तथ्य से भी इन्कार नहीं किया जा
सकता कि बाजार ने हिंदी की स्वीकार्यता को नई ऊंचाई दी है और विश्व को आकर्षित
किया है। यह सार्वभौमिक सच है कि जो भाषाएं रोजगार और संवादपरक नहीं बन पातीं उनका
अस्तित्व खत्म हो जाता है। मैक्सिको की पुरातन भाषाओं में से एक अयापनेको, यूक्रेन
की कैरेम, ओकलाहामा की विचिता, इंडोनेशिया की लेंगिलू भाषा आज अगर अपने अस्तित्व
के संकट से गुजर रही हैं तो उसके लिए उनका रोजगारपरक और संवादविहीन होना मुख्य
कारण हैं। एक अनुमान के मुताबिक दुनिया भर में तकरीबन 6900 मातृभाषाएं बोली जाती
हैं। इनमें से तकरीबन 2500 मातृभाषाएं अपने अस्तित्व के संकट से गुजर रही हैं।
इनमें से कुछ को 'चिंताजनक स्थिति वाली भाषाओं की सूची' में रख दिया गया है।
संयुक्त राष्ट्र द्वारा कराए गए एक तुलनात्मक अध्ययन से खुलासा हुआ है कि 2001 में
विलुप्त प्राय मातृभाषाओं की संख्या जो 900 के आसपास थी वह आज तीन गुने से भी पार
जा पहुंची हैं। जानना जरूरी है कि दुनिया भर में तकरीबन दो सैकड़ा ऐसी मातृभाषाएं
हैं जिनके बोलने वालों की संख्या महज दस-बारह रह गई है। यह चिंताजनक स्थिति है।
दूसरी
ओर अगर वैश्विक भाषा अंग्रेजी के फैलाव की बात करें तो नि:संदेह उसके ढेर सारे
कारण हो सकते हैं, लेकिन वह अपने शानदार संवाद और व्यापारिक नजरिए के कारण भी अपना
विश्वव्यापी चरित्र गढ़ने में सफल रही है। आज हिंदी भाषा भी उसी चरित्र को अपनाती
दिख रही है। वह विश्व संवाद की एक सशक्त भाषा के तौर पर उभर रही है और विश्व
समुदाय उसका स्वागत कर रहा है। कभी भारतीय ग्रंथों, विशेष रूप से संस्कृत भाषा की
गंभीरता और उसकी उपादेयता और संस्कृत कवियों व साहित्कारों की साहित्यिक रचना का
मीमांसा करने वाला यूरोपीय देश जर्मनी संस्कृत भाषा को लेकर आत्ममुग्ध हुआ करता
था। वेदों, पुराणों और उपनिषदों को जर्मन भाषा में अनूदित कर साहित्य के प्रति
अपने अनुराग को संदर्भित करता था। आज वह संस्कृत की तरह हिंदी को भी उतनी ही
महत्ता देते देखा जा रहा है। जर्मन के लोग हिंदी को एशियाई आबादी के एक बड़े तबके
से संपर्क साधने का सबसे दमदार हथियार मानने लगे हैं। जर्मनी के हाइडेलबर्ग, लोअर
सेक्सोनी के लाइपजिंग, बर्लिन के हंबोलडिट और बॉन विश्वविद्यालय के अलावा दुनिया
के कई शिक्षण संस्थाओं में अब हिंदी भाषा पाठ्यक्रम में शामिल कर ली गई हैं।
छात्र
समुदाय इस भाषा में रोजगार की व्यापक संभावनाएं भी तलाशने लगा है। एक आंकडे़ के
मुताबिक दुनिया भर के 150 विश्वविद्यालयों और कई छोटे-बड़े शिक्षण संस्थाओं में
रिसर्च स्तर तक अध्ययन-अध्यापन की पूरी व्यवस्था की गई है। यूरोप से ही तकरीबन दो
दर्जन पत्र-पत्रिकाएं हिंदी में प्रकाशित होती हैं। सुखद यह है कि पाठकों की संख्या
लगातार बढ़ती जा रही है। एक सर्वेक्षण के मुताबिक आज विश्व में आधा अरब लोग हिंदी
बोलते हैं और तकरीबन एक अरब लोग हिंदी बखूबी समझते हैं। वेब, विज्ञापन, संगीत,
सिनेमा और बाजार ऐसा कोई क्षेत्र नहीं बचा है जहां हिंदी अपने पांव पसारती न दिख
रही हो। वैश्वीकरण के माहौल में अब हिंदी विदेशी कंपनियों के लिए भी लाभ की एक
आकर्षक भाषा व जरिया बन गई है। उन्हें अपने उत्पादों को बड़ी आबादी तक पहुंचाने के
लिए हिंदी को अपना माध्यम बनाना रास आ रहा है। यानी पूरा कॉरपोरेट कल्चर ही अब
हिंदीमय होता जा रहा है। हिंदी के बढ़ते दायरे से उत्साहित सरकार की संस्थाएं भी
जो कभी हिंदी के प्रचार-प्रसार में खानापूर्ति करती देखी जाती थीं वे अब तल्लीनता
से हिंदी दिवस, हिंदी सप्ताह और हिंदी पखवाड़ा मना रही हैं। हिंदी भाषा के विकास और
उसके फैलाव के लिए यह शुभ संकेत है।
शुक्रवार, 13 अप्रैल 2012
आखिर कब तक हम बाबाओं के माया जाल में पड़े रहेंगे ?
आज पूरे दिन "स्टार न्यूज़" की पूरे दिन की एक मात्र मुख्य खबर रही कि किस तरह से उन्होंने एक बाबा के धन का पर्दाफाश किया.किस तरह वह बाबा अपनी भोली-भाली भक्त मंडली से धन खींचता था?कितना धन उस बाबा ने देश की भोली-भाली जनता से कमाया? बगैरा-बगैरा ...
मेरे ख़याल से यह कोई पहली बार नहीं है,जब किसी बाबा ने ऐसे लालच-पूर्ण कार्य को अंजाम दिया है.दुनिया भर में ,और विशेष तौर पर हमारे महान देश में तो यह आम बात है.क्यों भला हमीं वो मुर्गें हैं जो हमेशा ठगे जातें हैं?क्यों हम से ही कोई बाबा या ठग हमारे खून पसीने की कमाई का एक हिस्सा धर्म के नाम पर लूट कर अपने ऐसो-आराम में खर्च करता है,और मजे लूटता है? क्यों ?क्या हम इतने बड़े **तिये नज़र आतें हैं? जब भी मै टी.वी. पर उस कथित बाबा के समागम देखता था,मुझे आश्चर्य होता था कि उस में बड़े-बड़े उच्च शिक्षित लोग शिरकत करते थे,और कई धर्मों के लोग उस भीड़ में शामिल होते थे.वे सब बस एक ही बात तोते कि तरह बोलते थे-"बाबा आप की कृपा से मेरे सारे सपने पूरे हो गए ." या फिर " बाबाजी आप की कृपा से मेरा बेटा जो चार महीने से अस्पताल में था वह ठीक हो गया." और ऐसे ही कुछ अन्य.अरे भाई! वो बेचारा डॉक्टर जो दिन रात एक कर के आप के बेटे की देख रेख कर रहा है,इलाज कर रहा है.उस बेचारे का क्रेडिट आप बाबा को क्यों दे रहे हो.और आप कभी हनुमान जी ,कभी माँ दुर्गा,तो कभी साईं बाबा के मंदिर में जा-जा कर जो इतनी सारी दुआएं मांग रहे हो उस का भी क्रेडिट बाबा को ???? ये क्या है भाई ?
"दुआएं तो सिर्फ फकीरों की लगा करतीं हैं,अमीरों की नहीं"
"और हम फकीरों को अमीर बनाने में लगे जातें हैं,ये सोचे बिना कि जिस दिन वह फ़कीर अमीर बन जायेगा उसकी दुआएं काम करना बंद कर देंगी /"
इस सब के जिम्मेदार सिर्फ और सिर्फ हम हैं.जो लोग अपने निजी जीवन में कुछ नहीं कर पाते उन्हें हम अपने अध्यात्मिक जीवन का आधार बना देतें है.ऐसे ही कुछ लोग हमें हमारे धर्म के बारे में अपने हिसाब से बतातें हैं.ऐसे लोग जो अपनी जिन्दगी में किसी काम को अंजाम नहीं दे पाते या कहूँ कि निकम्मे लोग,आखिर में बाबा बन कर हमें सिखातें हैं कि धर्म क्या कहता है?जीवन को कैसे जीना है ? धन का सदुपयोग कैसे करना है.अरे बांगड़ू अब तू बताएगा हमें धन का उपयोग करना,तू जिसने कभी धन कमाया ही नहीं.
"धन का सदुपयोग करना उस व्यक्ति से अच्छा कोई नहीं जानता जिस ने जे तोड़ मेहनत करके उस धन को कमाया है." जहाँ तक मैं समझता हूँ.
और ये बात सिर्फ हिन्दू धर्म पर ही लागू नहीं होती बल्कि इस्लाम,सिख,और बाकी सभी धर्म के लोग भी इसी श्रेणी में आतें हैं.अगर एसा नहीं होता तो हमरे देश में इतनी साम्प्रदायिकता या धर्मान्धता नहीं होती.अलग -अलग मजहब का बाबा अपने तरीके से उस धर्म कि व्याख्या करता है.धर्म मात्र भाषा-भूषा,शारीरिक दिखाबे,पहनावे और पूजा स्थल के आकर में बांध कर रह गया.मेरी समझ में यह नहीं आता कि वह धर्म जो मानव को मोक्ष यानि मुक्ति प्रदान करता है,वह स्वयं इन बंधनों में क्यों है?क्यों ईश्वर एक होने के बाबजूद,हम एक दुसरे को अलग-अलग मानतें हैं?क्यों कोई ईश्वर कि संतानों पर जुल्म करता है?क्यों हम उन बेचारे जानवरों को मार कर अपना खाना बनालेतें हैं,जो हमारी तरह ही दर्द को महसूस करतें हैं.हमारी तरह ही सब करतें हैं-"आहार,निद्रा,भय मैथुनं च"(Eating,Sleeping,Defense and Mating).क्यों कोई खुद जैसे किसी आदमी को अछूत घोषित करता?क्यों कोई जीवन भर किसी एक जाति या कुल में जन्म लेने के कारण शोषित होता रहता और कोई-कोई पुजता रहता? क्यों?
क्या आप को नहीं लगता कि इन सब के पीछे एक ही कारण रहा है-धर्म जैसे पवित्र विषय का उन गलत हाथों में चला जाना जो कर्महीन हैं,और अत्यंत विषयी हैं.जो कुछ न करके भी संसार के सभी भोग भोगना चाहतें हैं.यहाँ तक कि वे स्वयं जो करतें हैं-उस कार्य को सही और उसी कार्य को कोई और करे तो उसे "पाप" जैसे भयानक नाम से संबोधित कर देतें हैं.इन लोगों ने धर्म-मजहब को अपने फायदे के लिए प्रयोग करना शुरू कर दिया,लोगों को ठगना शुरू कर दिया,या कहूँ कि हमें ठगना शुरू कर दिया.और हमें पता भी नहीं चला-
क्यों कि धर्म को तो आप केवल और केवल स्व-अध्ययन से तथा श्रेष्ठ गुरु से ही जान-समझ सकतें हैं.मगर हमें कहाँ फुर्सत धर्म को जानने की,या समझाने की.मगर डर और लालच ने आदमी को धर्म का अनुसरण करने को मजबूर कर दिया.ये मजबूर समय को बचाने के चक्कर में बाबाओं के पास पहुंचा-कोई भला बाबा मिला उसने बताया कि फलां मन्त्र का जाप करो मगर मगर बेचारे इंसान के पास फुर्सत नहीं-"बाबा ! जीतनी चाहें फीस ले लो ये जाप भी आप खुद ही कर लो? मुझे व्यापार से /नौकरी से कहाँ फुर्सत?" " अरे ये तो तुम्हें खुद ही करना होगा वत्स!" "नहीं वो बंगाली बाबा तो जाप भी खुद कर देता है बस 51001 /- रुपये उनके खाते में डाल दो?"
मेरे हिसाब से तो आज कल हम व्यापार के युग में जी रहें हैं,जहाँ प्रत्येक वस्तु बस व्यापार से जुड़े हैं-चाहें वे रिश्ते हों(दहेज़ चाहिए),चाहें वह दोस्ती हो (पार्टी चाहिए ),चाहें वह ईश्वर पूजा हो(भेंट चाहिए) या फिर चाहें जो सब कुछ बिना धन के अपूर्ण है.
और दोष सिर्फ और सिर्फ हमारा है.या कहूँ कि मेरा.फिर क्यों मैं किसी और को दोष देता फिरता हूँ?
गुरुवार, 5 अप्रैल 2012
एक ऐसा देश जिस की ना कोई भाषा है, न कोई भूषा और न ही संस्कृति
क्या आप जानतें हैं उस देश का नाम - जिस की ना कोई भाषा है, न कोई भूषा और न ही संस्कृति ? सब कुछ बस उधार का है.उस देश के नागरिक भी स्वयं को बड़ा ही श्रेष्ठ मानतें हैं,जब वे इन उधार की वस्तुओं का उपयोग करतें हैं.जिस देश को गुलामी की ऐसी लत लगी कि उन्होंने गुलामी की इन निशानियों को बड़े ही गर्व के साथ अब तक अपने सीने से लगा कर रखा है. समझ तो आप गएँ ही होंगे कि मैं किस राष्ट्र की बात कर रहा हूँ ?...जी हाँ! बड़े अफ़सोस के साथ कह रहा हूँ कि अपने देश की ही बात कर रहा हूँ.
"आजाद होने के बाद ,जब हमारे देश को गणतांत्रिक देश घोषित किया गया ,सरकार ने दुनिया के सब देशों से अपने राजनीतिक सम्बन्ध बनाने की श्रंखला में ,1952 में श्रीमती विजय लक्ष्मी पंडित को रूस में भारत का राजदूत नियुक्त किया तो जब वहां के सम्बंधित अधिकारीयों ने उन से प्रमाण पत्र मांगे तो श्रीमती पंडित ने जब प्रमाण पत्र दिखाए तो उन्हों ने उन प्रमाण पत्रों को स्वीकार करने से साफ़ मना कर दिया क्यों कि वे सब प्रमाण पत्र भारतीय भाषा में ना हो कर अंग्रेजी भाषा में थे ,जो कि भारत की गुलामी की भाषा थी.और किसी गुलाम देश के साथ राजनयिक सम्बन्ध स्थापित करने का प्रश्न ही नहीं उठता.
अधिकारियों ने उन से पूंछा कि "क्या भारत की अपनी कोई भाषा नहीं,क्या अंग्रेजों के आने से पहले आप गूंगे थे ?" मगर हमने उस अपमान को हंस कर सहन कर लिया, आज तक हम में कोई बदलाव नहीं हुआ.आज भी हमारी पुस्तकों से लेकर प्रमाण पत्र तक सब में अंग्रेजी पुती रहती है.
हर साल सरकार हिंदी पखवाड़े को ले कर करोडो रुपयों में आग लगा देती है,यह कह कर कि हम हिंदी सिखा रहें हैं.अरे भाई ऐसी जगह पैसा क्यों फूंकते हो जहाँ उसकी आवश्यकता ही नहीं.क्या ब्रिटेन अंग्रेजी पखवाडा मनाता है.या चीन चीनी महीना मनाता है.क्या आप ने किसी देश को अपनी भाषा का अपने लोगों में ही प्रचार-प्रसार करते देखा है.मगर यह हमारा दुर्भाग्य है.
विश्व के सभी सम्मेलनों में विभिन्न देशों के राजनयिक(नेता लोग) अपनी राष्ट्र भाषा में ही भाषण देतें हैं,वे इस के बारे में कम चिंतित होते हैं कि किसी को उनकी भाषा समझ में आ रही है या नहीं.मगर हमें तो जैसे दिखाबे का बड़ा बुरा चश्का लगा रहता है.हमारे नेता बस अंग्रेजी में ही बोलतें हैं.अन्य सभी राष्ट्रों ने अनुवादक रखें होतें हैं दुसरे नेताओं कि बात समझाने के लिए मगर हमारे नेता तो बेचारे किसी अनुवादक कि नौकरी ही खा जातें हैं.किसी भी देश में भारतीय भाषा के लिए अनुवादक रखने कि कोई आवश्यकता ही नहीं पड़ती.हम चाहें सभी भाषाओँ के अनुवादक रख कर खर्च कर लें मगर किसी और को क्यों खर्च करने दें?
एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मलेन में जब हमारे देश के पहले प्रधानमंत्री कि बारी आई तो सभी को बड़ी उत्सुकता थी कि भारत की आवाज सुनने का मौका सभी को मिलेगा.मगर उन को निराशा तब हाथ लगी जब माननीय प्रधानमंत्री ने अंग्रेजी में भाषण प्रारम्भ किया.कितना बुरा लगा होगा सभी को कि उन के अनुवादक लोग तो बेचारे दो महीने से हिंदी का अभ्यास कर रहे थे,मगर इन महोदय ने उनकी पूरी मेहनत पर पानी फेर दिया.
मुझे तो उन अनुवादकों पर दया आ रही है,क्यों कि जहाँ तक मैं सोचता हूँ उन को तो अगले ही दिन नौकरी से यह कह कर निकाल दिया गया होगा कि भारतीय नेता तो हिंदी में बोलतें ही नहीं हैं.तो आप की क्या आवश्यकता?
यही हाल तब हुआ था जब विश्व के कुछ भारतीय संस्कृति प्रेमियों ने हिंदी को भारत की भाषा मानते हुए उसे "संयुक्त राष्ट्र संघ" में उचित स्थान दिलवाने के लिए "विश्व हिंदी सम्मलेन " के आयोजन कि नींव रखी.पहले दो सम्मलेन क्रमशः नागपुर व मॉरिसस में आयोजित हुए,मगर जब तृतीय विश्व हिंदी सम्मलेन दिल्ली में आयोजित किया गया तो सभी हिंदी प्रेमियों का उत्साह ठंडा पड़ गया,क्यों कि उन्हों ने देखा कि हिंदी स्वयं अपने ही देश में सम्मानित नहीं है.इस सु-अवसर पर तत्कालीन प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरागांधी व अन्य अधिकारियों ने अपना अभिभाषण तक हिंदी में नहीं पढ़ा.जो मशौदा तैयार किया गया था वह भी अंग्रेजी में था.
दुर्भाग्य से आज भी मैं जब हिंदी पखवाड़े की स्थिति देखता हूँ तो कुछ ऐसी ही पाता हूँ,अधिकारी गण अपने समापन भाषण को हिंदी में देने में हमेशा ही असमर्थ होतें हैं.क्या ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री मि.चर्चिल सही कहते थे कि-
"हमने ही भारतीयों को सभ्य बनाया है,अन्यथा न तो इन की कोई भाषा थी न ही साहित्य."
अब रही बात भूषा की तो भारतीय वेश-भूषा यानि धोती-कुर्ता को या तो नेता पहनतें हैं या फिर अभिनेता.आम आदमी अपनी देशी वेश भूषा में न जाने क्यों स्वयं को दिखावटी सा महसूस करता है.न जाने क्यों उसे शर्म सी आती है इसे पहनने में.क्या जापानियों को,या चीनियों को अपनी पारंपरिक वेश-भूषा पहनने में ऐसी शर्म आती होगी ? क्या अरब देशों के बादशाह या फिर आम नागरिक अपनी भूषा को पहनने में शरमातें होंगे? क्या उन्हें अपनी वेश भूषा से किसी प्रकार कि व्यवसायिक हानि हुई ? शायद नहीं मगर हमारे भारतीयों को इन सारी बाधाओं का सामना करना पड़ता है,उसके अपने देशवासी उसको ऐसे कपड़ों में देख उस का मखोल बनाना शुरू कर देतें हैं या फिर उसे "असामान्य"(ABNORMAL) का खिताब दे देतें हैं.अब वह करे तो क्या करे ? इस किम्कर्तव्य-विमूढ़ की स्थिति में वह तुरंत ही कमीज -पतलून या फिर आधुनिक जींस- T-SHIRT पहन कर पागलों की तरह घूमने पर विवश हो जाता है,या कहूँ कि खुश रहता है.अब उसे कोई टोकता नहीं है .अब सब को सामान्य लगता है."गुलामी यहाँ सामान्य है,स्वतंत्रता असामान्य.चाहें वह विचारों कि हो या भाषा की या फिर व्यक्तिगत रहन-सहन की".हमें खुद पर कभी नाज़ नहीं होता अपितु बगल वाले पर ज्यादा होता है.हमारा आत्मविश्वास बड़ा ही दुर्बल है.हमें नक़ल करना इतना अच्छा लगता है की हम भूल जातें है,नक़ल सिर्फ अनुकूल चीजों की, की जाती है न की प्रति कूल की.अब कोई गर्मी के वातावरण में मोटे-मोटे कपडे(जींस) पहने तो यह कहाँ की अनुकूलता.मगर हमें इस बात का होश कहाँ.लोग हमें पागल बना रहें हैं और हम बन रहें हैं.हम न चाहते हुए भी वह पहन रहें जो दुसरे हमें पहनाना चाहतें हैं.भले ही उन कपड़ों में हमें आराम नाम की कोई चीज नजर नहीं आती.मगर बस ऊपरी तौर पर हम प्रोफेशनल दिखने के लिए ऐसा करतें हैं.और इस के आदी बन जातें हैं.फिर हमें वही सब भाने लगता है.यह कहना गलत ना होगा की हमारी भारतीय वेश-भूषा मात्र मध्यम वर्गीय और कुछ उच्च वर्गीय महिलाओं द्वारा ही पारंपरिक रूप में प्रयोग में लायी जाती है,अन्यथा पुरुष तो स्वयं को आज भी ब्रिटिश गुलाम ही मानतें हैं.कहने का अर्थ है की मात्र महिलाएं ही हैं जो आज भी भारतीय संस्कृति को जीवित रखें हुए हैं,और हम कहतें हैं की हमारा देश पुरुष प्रधान देश है.भला गुलाम मानसिकता कभी प्रधान हो सकती है क्या?
और किसी देश की संस्कृति उस देश की भाषा और भूषा का ही मिला जुला रूप होती है,तो हुआ न हमारा देश ऐसा देश जिसकी न कोई भाषा है न कोई भूषा,और न ही कोई संस्कृति.मुझे बड़ा ही अफ़सोस है यह कहने में कि
ऐसे देश को मैं कैसे महान कहूँ.
कैसे कहूँ -मेरा भारत महान
(प्रतियोगिता दर्पण के अप्रेल अंक से प्रेरित)
"आजाद होने के बाद ,जब हमारे देश को गणतांत्रिक देश घोषित किया गया ,सरकार ने दुनिया के सब देशों से अपने राजनीतिक सम्बन्ध बनाने की श्रंखला में ,1952 में श्रीमती विजय लक्ष्मी पंडित को रूस में भारत का राजदूत नियुक्त किया तो जब वहां के सम्बंधित अधिकारीयों ने उन से प्रमाण पत्र मांगे तो श्रीमती पंडित ने जब प्रमाण पत्र दिखाए तो उन्हों ने उन प्रमाण पत्रों को स्वीकार करने से साफ़ मना कर दिया क्यों कि वे सब प्रमाण पत्र भारतीय भाषा में ना हो कर अंग्रेजी भाषा में थे ,जो कि भारत की गुलामी की भाषा थी.और किसी गुलाम देश के साथ राजनयिक सम्बन्ध स्थापित करने का प्रश्न ही नहीं उठता.
अधिकारियों ने उन से पूंछा कि "क्या भारत की अपनी कोई भाषा नहीं,क्या अंग्रेजों के आने से पहले आप गूंगे थे ?" मगर हमने उस अपमान को हंस कर सहन कर लिया, आज तक हम में कोई बदलाव नहीं हुआ.आज भी हमारी पुस्तकों से लेकर प्रमाण पत्र तक सब में अंग्रेजी पुती रहती है.
हर साल सरकार हिंदी पखवाड़े को ले कर करोडो रुपयों में आग लगा देती है,यह कह कर कि हम हिंदी सिखा रहें हैं.अरे भाई ऐसी जगह पैसा क्यों फूंकते हो जहाँ उसकी आवश्यकता ही नहीं.क्या ब्रिटेन अंग्रेजी पखवाडा मनाता है.या चीन चीनी महीना मनाता है.क्या आप ने किसी देश को अपनी भाषा का अपने लोगों में ही प्रचार-प्रसार करते देखा है.मगर यह हमारा दुर्भाग्य है.
विश्व के सभी सम्मेलनों में विभिन्न देशों के राजनयिक(नेता लोग) अपनी राष्ट्र भाषा में ही भाषण देतें हैं,वे इस के बारे में कम चिंतित होते हैं कि किसी को उनकी भाषा समझ में आ रही है या नहीं.मगर हमें तो जैसे दिखाबे का बड़ा बुरा चश्का लगा रहता है.हमारे नेता बस अंग्रेजी में ही बोलतें हैं.अन्य सभी राष्ट्रों ने अनुवादक रखें होतें हैं दुसरे नेताओं कि बात समझाने के लिए मगर हमारे नेता तो बेचारे किसी अनुवादक कि नौकरी ही खा जातें हैं.किसी भी देश में भारतीय भाषा के लिए अनुवादक रखने कि कोई आवश्यकता ही नहीं पड़ती.हम चाहें सभी भाषाओँ के अनुवादक रख कर खर्च कर लें मगर किसी और को क्यों खर्च करने दें?
एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मलेन में जब हमारे देश के पहले प्रधानमंत्री कि बारी आई तो सभी को बड़ी उत्सुकता थी कि भारत की आवाज सुनने का मौका सभी को मिलेगा.मगर उन को निराशा तब हाथ लगी जब माननीय प्रधानमंत्री ने अंग्रेजी में भाषण प्रारम्भ किया.कितना बुरा लगा होगा सभी को कि उन के अनुवादक लोग तो बेचारे दो महीने से हिंदी का अभ्यास कर रहे थे,मगर इन महोदय ने उनकी पूरी मेहनत पर पानी फेर दिया.
मुझे तो उन अनुवादकों पर दया आ रही है,क्यों कि जहाँ तक मैं सोचता हूँ उन को तो अगले ही दिन नौकरी से यह कह कर निकाल दिया गया होगा कि भारतीय नेता तो हिंदी में बोलतें ही नहीं हैं.तो आप की क्या आवश्यकता?
यही हाल तब हुआ था जब विश्व के कुछ भारतीय संस्कृति प्रेमियों ने हिंदी को भारत की भाषा मानते हुए उसे "संयुक्त राष्ट्र संघ" में उचित स्थान दिलवाने के लिए "विश्व हिंदी सम्मलेन " के आयोजन कि नींव रखी.पहले दो सम्मलेन क्रमशः नागपुर व मॉरिसस में आयोजित हुए,मगर जब तृतीय विश्व हिंदी सम्मलेन दिल्ली में आयोजित किया गया तो सभी हिंदी प्रेमियों का उत्साह ठंडा पड़ गया,क्यों कि उन्हों ने देखा कि हिंदी स्वयं अपने ही देश में सम्मानित नहीं है.इस सु-अवसर पर तत्कालीन प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरागांधी व अन्य अधिकारियों ने अपना अभिभाषण तक हिंदी में नहीं पढ़ा.जो मशौदा तैयार किया गया था वह भी अंग्रेजी में था.
दुर्भाग्य से आज भी मैं जब हिंदी पखवाड़े की स्थिति देखता हूँ तो कुछ ऐसी ही पाता हूँ,अधिकारी गण अपने समापन भाषण को हिंदी में देने में हमेशा ही असमर्थ होतें हैं.क्या ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री मि.चर्चिल सही कहते थे कि-
"हमने ही भारतीयों को सभ्य बनाया है,अन्यथा न तो इन की कोई भाषा थी न ही साहित्य."
अब रही बात भूषा की तो भारतीय वेश-भूषा यानि धोती-कुर्ता को या तो नेता पहनतें हैं या फिर अभिनेता.आम आदमी अपनी देशी वेश भूषा में न जाने क्यों स्वयं को दिखावटी सा महसूस करता है.न जाने क्यों उसे शर्म सी आती है इसे पहनने में.क्या जापानियों को,या चीनियों को अपनी पारंपरिक वेश-भूषा पहनने में ऐसी शर्म आती होगी ? क्या अरब देशों के बादशाह या फिर आम नागरिक अपनी भूषा को पहनने में शरमातें होंगे? क्या उन्हें अपनी वेश भूषा से किसी प्रकार कि व्यवसायिक हानि हुई ? शायद नहीं मगर हमारे भारतीयों को इन सारी बाधाओं का सामना करना पड़ता है,उसके अपने देशवासी उसको ऐसे कपड़ों में देख उस का मखोल बनाना शुरू कर देतें हैं या फिर उसे "असामान्य"(ABNORMAL) का खिताब दे देतें हैं.अब वह करे तो क्या करे ? इस किम्कर्तव्य-विमूढ़ की स्थिति में वह तुरंत ही कमीज -पतलून या फिर आधुनिक जींस- T-SHIRT पहन कर पागलों की तरह घूमने पर विवश हो जाता है,या कहूँ कि खुश रहता है.अब उसे कोई टोकता नहीं है .अब सब को सामान्य लगता है."गुलामी यहाँ सामान्य है,स्वतंत्रता असामान्य.चाहें वह विचारों कि हो या भाषा की या फिर व्यक्तिगत रहन-सहन की".हमें खुद पर कभी नाज़ नहीं होता अपितु बगल वाले पर ज्यादा होता है.हमारा आत्मविश्वास बड़ा ही दुर्बल है.हमें नक़ल करना इतना अच्छा लगता है की हम भूल जातें है,नक़ल सिर्फ अनुकूल चीजों की, की जाती है न की प्रति कूल की.अब कोई गर्मी के वातावरण में मोटे-मोटे कपडे(जींस) पहने तो यह कहाँ की अनुकूलता.मगर हमें इस बात का होश कहाँ.लोग हमें पागल बना रहें हैं और हम बन रहें हैं.हम न चाहते हुए भी वह पहन रहें जो दुसरे हमें पहनाना चाहतें हैं.भले ही उन कपड़ों में हमें आराम नाम की कोई चीज नजर नहीं आती.मगर बस ऊपरी तौर पर हम प्रोफेशनल दिखने के लिए ऐसा करतें हैं.और इस के आदी बन जातें हैं.फिर हमें वही सब भाने लगता है.यह कहना गलत ना होगा की हमारी भारतीय वेश-भूषा मात्र मध्यम वर्गीय और कुछ उच्च वर्गीय महिलाओं द्वारा ही पारंपरिक रूप में प्रयोग में लायी जाती है,अन्यथा पुरुष तो स्वयं को आज भी ब्रिटिश गुलाम ही मानतें हैं.कहने का अर्थ है की मात्र महिलाएं ही हैं जो आज भी भारतीय संस्कृति को जीवित रखें हुए हैं,और हम कहतें हैं की हमारा देश पुरुष प्रधान देश है.भला गुलाम मानसिकता कभी प्रधान हो सकती है क्या?
और किसी देश की संस्कृति उस देश की भाषा और भूषा का ही मिला जुला रूप होती है,तो हुआ न हमारा देश ऐसा देश जिसकी न कोई भाषा है न कोई भूषा,और न ही कोई संस्कृति.मुझे बड़ा ही अफ़सोस है यह कहने में कि
ऐसे देश को मैं कैसे महान कहूँ.
कैसे कहूँ -मेरा भारत महान
(प्रतियोगिता दर्पण के अप्रेल अंक से प्रेरित)
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