बुधवार, 24 जून 2020

दुष्ट व्यक्ति यदि आपको सम्मान भी दे तो सावधान



समाज में दो प्रकार के मनुष्य सदा से ही पाए जाते रहें हैं – सज्जन और असज्जन | अलग अलग युगों में हम उन्हें विभिन्न नामों से पुकारते रहें हैं कभी हम उन्हें देवता व राक्षस तो कभी मानव- अमानव तो सुर –असुर  और कभी सज्जन- दुर्जन | यहाँ हम बात कर रहें हैं दुसरे वालों की यानि असज्जन की | असज्जन व्यक्ति ऐसा व्यक्ति है जिस से न तो सीधे सीधे आप वैर भाव रख सकते हैं और प्रेम भाव को तो सवाल ही नहीं उठता | तो फिर क्या करना चाहिए ? महाकवि तुलसी दास जी महाराज श्रीराम चरित मानस  के प्रारंभ में ही कहते हैं :
बंदउँ संत असज्जन चरना। दुःखप्रद उभय बीच कछु बरना॥
बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं। मिलत एक दु:ख दारुन देहीं॥2
अर्थात्:-
तुलसी दास जि कहतें हैं कि मैं संत और असंत दोनों के चरणों की वन्दना करता हूँ, दोनों ही दुःख देने वाले हैं, परन्तु उनमें कुछ अन्तर कहा गया है। वह अंतर यह है कि एक (संत) तो बिछुड़ते समय प्राण हर लेते हैं और दूसरे (असंत) मिलते हैं, तब दारुण दुःख देते हैं। (अर्थात्‌ संतों का बिछुड़ना मरने के समान दुःखदायी होता है और असंतों का मिलना।)॥2


इसी सम्बन्ध में, रहीम दास जी कहतें है कि दुष्ट लोगों से न वैर भला है और न ही प्रेम क्यों कि जिस प्रकार एक कुत्ते के चाटने (प्रेम) से और काटने( वैर) से दोनों से ही बुरा (अस्वस्थ) होने का खतरा बना रहता है|
"रहिमन ओछे नरन सो, वैर भली न प्रीत | काटे चाटे स्वान के, दोउ भांति विपरीत |” 
इसी सन्दर्भ में , रावण- मारीच का भी प्रसंग आता है जब रावण सीता हरण के लिए मारीच को सोने का आकर्षक मृग बनाने के लिए राजी करने के लिए आता है लिए आता है तो वह मारीच को झुक कर प्रणाम करता है | मारीच चूँकि एक विद्वान् है अतः वह समझ जाता है कि जब कोई दुष्ट व्यक्ति आप के सामने नतमस्तक हो तब समझ  लो कि संकट की घडी आ गई है | गोस्वामी तुलसीदास इसे इस प्रकार कहतें हैं :
“नवनि नीच की अति दुखदायी | जिमि अंकुश धनु उरग बिलाई ||
अर्थात् दुष्ट व्यक्ति का झुकना भी वैसा ही कष्टदायक है जिस प्रकार अंकुश , धनुष ,सर्प और बिल्ली का झुकना क्यों कि ये सभी तभी झुकतें है जब सामने वाले का नाश करने वालें होतें हैं|
हरे कृष्ण
(मैं अभी वायुसेना के मेडिकल सेंटर में हूँ गले में दर्द की शिकायत अस्वस्थ हूँ | आशा है शीघ्र ही ठीक हो जाऊंगा|)

रविवार, 21 जून 2020

दया धर्म का मूल है पाप मूल अभिमान


      ऐसा ही हमें हमारे धर्म ग्रंथों में सिखलाया गया कि दया और करुणा हमारे धर्म के मुख्य  आधार है |  इसलिए एक व्यक्ति को चाहिए कि वह केवल मानव पर ही अपितु जीव मात्र पर दया और करुना क भाव रखे | यदि हम जानवरों पर अत्याचार करतें है उन्हें मारते अथवा उनका वध करते हैं तो निश्चित रूप से आप धर्म के अपराधी होने का कार्य कर रहें हैं | सनातन धर्म हमें शिक्षा देता है कि  वास्तव में प्रत्येक जीव एक आत्मा है अर्थात् वह शरीर से ही मात्र भिन्न है अन्यथा एक मानव में और किसी सर्प या गाय में कोई विशेष भिन्नता नहीं है| यदि हम ऐसा भाव रखें तो फिर असमानता का भाव ही समाप्त हो जायेगा | वास्तव में हम ऐसा महसूस नहीं करते हैं तभी शायद रोज़ के रोज़ हम अनेक प्राणियों के जीवन के साथ खिलवाड़ न कर रहे होते| रोज़ के रोज़ अनेकों पेड़ों को काट कर हम अनेकों पक्षियों के बेघर करते समय तो नहीं सोचते कि उनका क्या होगा | मगर जब हम कभी उन्हीं समस्याओं से गुज़रते है तो हम भगवान् को कोसते हैं | हिन्दू धर्म में एक और सिद्धांत है वह है – प्रकृति का सिद्धांत (जिसे कर्म का सिद्धांत भी कहा जाता है )| इसके अनुसार हम जिस जीव के साथ जैसा व्यवहार कर रहे हैं प्रकृति हमें भी उसकी प्रतिक्रिया की व्यवस्था करने की जिम्मेदारी लेती है | मतलब जब स्वयं प्रकृति ने यह जिम्मेदारी ले ली तो उसमें किसी को कोई शक नहीं होना चाहिए | चूँकि प्रकृति अद्भुत बलशाली है और संप्रभु है कि उसके सामने कोई महाशक्तिशाली व्यक्ति भी तुच्छ है तो फिर किसी छुटभैये की तो औकात ही क्या है| मगर कमाल की बात यह है कि समय के साथ –साथ हम सभी अपने धर्म की शिक्षाओं से दूर होते जा रहें हैं| जहाँ हम अपनी तीन -चार पीढ़ियों के साथ संयुक्त  परिवार में रहते थे आज एकल परिवार में रहने के लिए मजबूर हो गए हैं| व्यस्त जीवन शैली में हमें अपने परिवारीजनों तक के लिए समय नहीं होता तो फिर कहाँ से कोई धर्म की शिक्षा प्राप्त करे| न हम मंदिरों में जाकर शुद्ध भक्तों का संग प्राप्त करते हैं और न ही हम धर्म ग्रंथों का अध्ययन करतें हैं |
तो क्या करूँ मैं ?
तो सुनो भाई ! सबसे पहले स्वयं पर दया करो |
वह कैसे ? ये कैसी बात हुई ?
भाई तुम भी तो खुद पर अत्याचार ही कर रहे हो न ? क्या हम ने यह जन्म बड़े ब्रांड के कपड़ों के व्यापारियों की तिजोरियां भरने के लिए लिया है या फिर बड़ी कारों के विक्रेताओं की सफलता के लिए या फिर व्यापारियों के बैंक बेलेंस को बढ़ने के लिए ? या फिर रेस्तरां मालिकों की जेबें गरम करने की खातिर ?
हाँ हम वही तो कर रहें हैं | अपनी आवश्यकताओं को इतना बढ़ा दिया है हमने खुद को अथवा अपने प्रियजनों (जैसे पिता अथवा पति) को कोल्हू का बैल बना दिया है, दिन रात काम पर लगा है|बस  पैसा कमाने की प्रतियोगिता में इतना बहुमूल्य समय बर्बाद कर रहें हैं  और यह सब क्यों हो रहा है उसका कारण है- अभिमान यानि अहंकार( मैं) | सभी लोग अपने अभिमान को सब से ऊपर रखना चाहते हैं | जैसे मेरे पास सबसे बड़ी गाड़ी है या बंगला या ब्रांडेड कपडे या फिर बहुत प्रकार के परिधान(कपडे)| सब के सब अभिमान के कारण ही तो हैं?  हमें अपने मित्रों से कहना अच्छा लगता है कि हम हफ्ते में ज्यादातर बाहर ही फलां रेस्तरां में खाना खातें हैं| इस से हमारा स्टैटस बढ़ता है जो अभिमान का परिवर्तित स्वरुप है | मगर इस अभिमान के चक्कर में हम रेस्तरां मालिकों की जेबें अनावश्यक रूप से भर देतें हैं और अपनी जेबें खाली जिन्हें भरने के लिए हमें पुनः गधे की भांति प्रयास करना पड़ता है| जिस से हमारे जीवन का बहुमूल्य समय व्यर्थ ही चला जाता है | तो सब से पहले खुद पर दया कीजिए फिर अपने प्रियजनों पर उसके बाद समस्त प्राणियों पर|
क्योंकि दया धर्म का मूल है और पाप मूल अभिमान    

हरे कृष्ण

मंगलवार, 13 जून 2017

धर्म परिवर्तन ( कहानी)

कहानी
"ये पंडित जी को क्या हो गया ? बुढ़ापे में साठिया गए जो ईसाई धर्म अपना लिया।" मोहल्ले में सब पंडित जी की थू - थू कर  रहे थे। पूरा बामन मोहल्ला पंडितजी के धर्म परिवर्तन को ले कर तरह तरह की बाते बना रहा था । मगर पंडित जी इन सब बातों की कोई फिक्र न थी।
पंडित जी से मेरी मुलाकात सिर्फ साल भर पहले की थी। पिछले साल जनवरी में , मैं जोधपुर तबादले पर आया था । तो सरकारी क्वाटर मिला नही था। जिस वजह से मुझे पंडित जी के घर मे रेंट पर रहना पड़ा। पंडित जी एक  दम शुद्ध शाकाहारी । मुझे आते ही फरमान सुना दिया कि देखो भाई ज्यादा तर फौजी सर्वाहारी होते हैं, मगर जब तक आप लोग इस घर में रहेंगे कुछ भी तामसिक भोजन नही करेंगे। मैं भी ठहरा शुद्ध ब्राह्मण जो लहसुन प्याज भी न छुए। पंडित जी का घर दोमंजिला था । जिसमें से दो कमरे उन्होंने किराये पर उठा दिए थे, बाकी का घर वो ख़ुद और खुद के बच्चों के लिए रखते थे। पंडित जी सरकारी स्कूल मास्टर थे। सो कुछ उनकी पेंशन आ जाती थी ।पिछले साल जब में जोधपुर आया था तब उनके घर पर सिर्फ सात बच्चे थे। मगर पिछले साल में उनके घर मे 16 बच्चे हो गए । जिनका खर्च शायद पेंशन से न चल पाता होगा इस लिए उन्होंने नीचे की अपनी बैठक और खुद का कमरा भी किराये पर उठा दिया। पंडित जी अपने बच्चों के लिए कुछ भी कर सकते थे। ये बच्चे थे ही इतने प्यारे। इन बच्चों में कुछ की उम्र 5-7 वर्ष की और कुछ 3-4 वर्ष के और चार बच्चे 0- 2 वर्ष के थे। इनमे ज्यादातार लड़किया  
थीं। अभी कुछ ही दिन हुए थे उस बात को मुझे अच्छे से याद है मैं ड्यूटी से देर रात लौटा था शायद ग्यारह साढ़े ग्यारह का वक़्त रहा होगा। पंडित जी घर के बाहर ही हाथ मे खून से लथपथ एक नवजात को लेकर खड़े थे । नवजात शिशु गंदे से कपड़े में लिपटा था । मेरी कार को सामने से रोक कर खड़े हो गए ।मैं उस दृश्य को देख के बहुत घबरा गया था। मेरी जगह शायद कोई भी इंसान होता वो भी शायद ऐसा ही रिएक्ट करता । एक पल को तो जैसे मेरे दिमाग ने काम करना ही बंद कर दिया। तभी वे कार में बैठ गए। और तुरंत हॉस्पिटल चलने के लिए बोलने लगे। मैं पास ही के हॉस्पिटल में लेकर गया। वहां डॉक्टरों ने तुरंत उस शिशु का इलाज करना शुरू कर दिया,उसकी हालत बहुत नाजुक थी। पंडित जी  को वो पार्क में उस वक़्त मिली जब  वे सब बच्चो को खाना  खिला कर पार्क में टहलने गए थे। तभी उन्हें उस कन्या शिशु की चीत्कार सुनाई पड़ी, कुछ आवारा कुत्ते उस बच्ची को अपने पंजो से खसोट रहे थे। पंडित जी ने दौड़ कर उस को जैसे तैसे कर कुत्तों से बचाया। कुत्तों के मुँह से उनका नरम नरम भोजन छिनना आसान न था। कुत्तो ने पंडित जी पर हमला कर दिया। बेचारा एक बूढ़ा आदमी कुत्तों का शिकार बन गया। आखिर दो हफ़्तों बाद बच्ची को डिस्चार्ज कर दिया गया । वो अब ठीक थी। पंडित जी भी ठीक हो गए मगर इन 15 दिनों तक वे कितने परेशान रहे कि न उन्होंने ढंग से खाना खाया न ही चैन से सोये। बस पूरे पूरे दिन वे अपने घर के मंदिर में अपने बच्चों के साथ भगवान के सामने बैठ कर  उस बच्ची के लिए प्रार्थना करते रहते। आखिर ईश्वर ने उनकी सुन ही ली।  मगर एक हफ्ते बाद पंडित जी ने घर का मंदिर हटा दिया और घर के बाहर कृष्णा कुटी की जगह क्राइस्ट कॉटेज लिखवा दिया । मुझे पता चला कि उस बच्ची के इलाज में बहुत खर्चा हो गया था। उनके पास इतना पैसा नही था ।कई लोन कंपनियों से कोशिश की मगर शायद पंडित जी उनकी शर्तो को पूरा नही कर सकते थे और न    सब कुछ दाब पर लगा सकते थे वो क्योंकि उन्हें अपने दूसरे सोलह  बच्चों का भी सोचना था और आखिर   उन्होंने खुद का नाम बदल लिया था ।  एक मिशनरी से उन्हें सहायता मिल गई थी। मगर यू ही तो कुछ नही मिलता। इंसान का नाम बदलने से इंसान थोड़े बदल जायेगा। मगर दुनिया को कौन समझाए ।

बुधवार, 12 अप्रैल 2017

इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों से आगे : ऑनलाइन वोटिंग का विकल्प



       इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों का मुद्दा जिस प्रकार से भारतीय राजनीति में छाया हुआ है उस से एसा लगता है भारतीय नेताओं एक बार फिर से विचार कर लेना चाहिए की क्या वे सिर्फ अपनी निजी चिंताओं के प्रति जागरूक हैं या फिर देश के विषय में भी सोचते हैं. आप को बता दें कि इन मशीनों की सुरक्षा में कई सिविल अधिकारी, कई अध्यापक या राज्य के वे कर्मचारी जो बिना किसी प्री-प्लानिग के नियुक्त होतें हैं तथा अर्ध सैनिक बल के साथ-साथ प्रादेशिक पुलिस रहती है. इतने बड़े सुरक्षा बेड़े में सेंध लगाना किसी भी मास्टर माइंड के लिए असंभव है. जहाँ तक पहले के ज़माने में जो बैलेट सिस्टम चलता था उसमे गड़बड़ियो की सम्भावना बहुत ज्यादा होती थी. ये सब जानकारियां मुझे मेरे पिता से प्राप्त हुईं जिन्होंने अपनी नियुक्ति के दौरान अनेकों चुनावों में पोलिंग बूथ के सञ्चालन में भागीदारी निभाई. बैलेट सिस्टम में यदि आप एक बैलेट पैड किसी तरीके से चुरा लेते हो तो एक एक मतदाता मनचाहे वोट डाल सकता था. यह काम बहुत ही आसान होता था. और इसके बारे में विरोधी दलों को शायद ही भनक लग पाती थी. यदि कोई वोटिंग मशीनों के साथ छेड़छाड़ कर सकता है जो की भारी सुरक्षा में रहती हैं. तो फिर पुरानी बैलेट सिस्टम ही कहाँ सुरक्षित रहेगा. और फिर एक तरफ तो हम डिजिटल इंडिया की बात करें और दूसरी तरफ हम पुरातनता की बात करें तो यह दोगलापन तो सिर्फ भारत में ही देखने को मिल सकता है. जिस देश में छात्रो की उत्तर पुस्तिकाएं कंप्यूटर से जांची जाती हैं. जहाँ बैंक पुर्णतः इन्टरनेट से जुड़े हैं. जहाँ सब कुछ ऑनलाइन होने जा रहा है, वहां मेरी सलाह है कि वोटिंग भी ऑनलाइन हो. क्या हम प्रत्येक मतदाता को उसके आधार नंबर से जोड़कर उस से मतदान नहीं करवा सकते? क्या OTP के माध्यम यह सब संभव नहीं है? क्या चुनाव आयोग के योग्य पदाधिकारी इस पर विचार नहीं कर सकते? इसे एक विकल्प के रूप में रखा जाये जैसे लोग मनुअल बैंकिंग के साथ साथ ऑनलाइन बैंकिंग का आप्शन चुनते हैं. उसी तरह ऑनलाइन वोटिंग का विकल्प भी होना चाहिए फिर देखिये भारत में युवा मतदाता कैसे वोटिंग एप्प का सदुपयोग करते हैं. जय हिन्द.

बुधवार, 2 नवंबर 2016

क्यों करतें हैं सोमवार व्रत (व्यंग्य )

      सोमवार सदा से पवित्र माना जाता है, सदा ही लोग इस दिन व्रत कर ते आये हैं।  वे लोग जो धर्म कर्म की कम जानकारी रखते हैं , वे इस बात से हमेशा चिंताग्रस्त रहते हैं  कि सोमवार का वृत्त क्यों रखा जाता है. मेरे मित्र सेनादास ने यही प्रश्न बाबा लटूरी आईआइटीयन  से जब किया तो  वे  थोड़ी टेंसन में आ गये मगर फिर सोच कर उन्होंने जो मेरे प्रश्नों का उत्तर अपनी टेक्नीकल थिओरी के द्वारा दिया उसे सुन कर मेरे मित्र सेनादास के दिमाग के सारे स्रोत खुल गए -
१. "सोमवार वीक का पहला दिन होता है यानि कि लंबा वीकेंड के बाद पुनः ऑफिस जाना। " यह बात इतनी भयावह और डरावनी होती हैं की आदमी संडे का आनंद भूल सोमवार के गम  में डूब जाता है।  कई बार बोस नाम का प्राणी इतना डरावना महसूस होने लगता है की आदमी मजबूरीवश भूतनाथ यानि की महादेव की शरण में चला जाता है।

२. कई बार व्यक्ति अपने वीकेंड में किये गए पाप-पूर्ण कार्यकलापों के पश्चाताप के फलस्वरूप प्राप्त गिल्टी फीलिंग को मिनिमाइज करने के लिए आशुतोष भगवान् की पूजा  करता है।

३. कई लोग वीकेंड में पत्नी द्वारा की गई अंधाधुन्द शॉपिंग में हुए खर्चे का खामियाज़ा पूरा करते हैं।  ताकि एक दिन व्रत रख कर कुछ तो पैसा बचे।  इस से भगवान् महादेव भी प्रसन्न हो जाते हैं।  और...

४. "अलग अलग लोग अलग -२ कारण बच्चा सेनादास ! " इसी बात पर बाबा लटूरी आईआइटीयन का एक श्लोक याद कर लो। 


"भिन्न भिन्न मत: भिन्न भिन्न व्रत:, 
किमे बॉसेन  भय: कृते सोमवार व्रत: .
किमे कार्यं भय: कृते सोमवार व्रत:. 
किमे पापकर्मणा भय: . 
स: दुर्लभ प्राणी स यो प्रियं भजन्ते महादेव।"

     इस प्रकार बड़े  भारी  मन से सेनादास ने अपनी डायरी में यह श्लोक नोट कर के यूनिफार्म पर इस्तरी करना प्रारम्भ कर दिया।  कल की परेड की तैयारी भी करनी थी। यह दर्द तो सिविलियन बाबा लटूरी आईआइटीयन के स्वप्न संसार में दूर दूर तक न होगा। आखिर सेनादास ने एक और लाइन अपनी ओर  से श्लोक में ऐड कर दी -
  " स: , यो  जानामि सेना : व्यथा: ,स: कुरतु किम वृत:। "

हर हर महादेव !

रविवार, 30 अक्तूबर 2016

इस दिवाली ह्रदय जलायें

जब कहीं अँधेरा होता है,
जब कोई भूंखा सोता है,
जब कोई बच्चा रोता  है,
जब कोई अपना खोता हैं,
जब दर्द किसी को होता है,
तब दर्द कवि को होता है.
और ह्रदय कवि का रोता है.

जब कहीं दिवाली होती है
और कहीं अँधेरा होता है.
जो  पेट भरे हों माखन से
उनको लड्डू मिल  जाते हैं।
जिनको ना रोटी मिल पाती
वे भूंखो ही सो जाते हैं.

परंपरागत दिवाली तो सदा मनी है , सदा मानेगी।   
इस बार नया एक चलन चलाएं। 
भरपेटों को क्या  स्वीट खिलाना,
कुछ भूखों  को भोज कराएं।
जहाँ भरा है अँधियारा उन,
झोपड़ियों में दीप जलाएं।
इस दिवाली कुछ नया मनाएं।
दीप सदा ही जलते आये,
इस बार मित्र हम  ह्रदय जलायें।


बुधवार, 18 सितंबर 2013

पागलों को परवाह है देश की,और बुद्धिजीवी बेपरवाह हैं

कल मैं दिल्ली के बजीर पुर डिपो बस स्टैंड पर खड़ा देख रहा था  कि एक  पागल- सा युवक सड़क पर एक डंडा  लहरा कर दिल्ली सरकार का विरोध कर रहा है.लोग उस की बातों पर कोई ध्यान नहीं दे रहे थे . और देते भी क्यों वह एक पागल जो था .  वह कभी -२ जोश में आ कर डंडे को जोर से हवा में लेहरा  देता . वह चाहता था कि सरकार  जबाव दे कि वह अपने फायदों की परवाह न करते हुए,दिल्ली में शराब पर पूरी तरह से रोक क्यों नहीं लगा देती .वह चाहता था कि देश में जो गरीबों के उत्थान / विकास के लिए जो कार्यक्रम चलाये जा रहें हैं, उन में पारदर्शिता  आनी चाहिए तथा गरीबों को उन का  मिलाना चाहिए . और गरीबी विकास न हो कर  गरीबों का विकास होना चाहिए।क्यों कि गरीबों को राशन देनें से गरीब  विकास नहीं होगा। गरीबों को रोजगार व   जैसी सुविधा भी होनी चाहिए।यद्यपि मैं देख रहा था की उस के डंडे लहराने वाले कृत्य से सभी लोगों को असुविधा हो रही थी. मगर सब चुप चाप देख रहे थे ( याद  रहे सुन कोई नहीं रहा था  ) किसी को नहीं थी कि उस से मन करे कि उस को मन करे कि भाई तुम्हारे  डंडे लहराने वाले कृत्य से सभी लोगों को असुविधा हो रही है मगर शायद एक ही व्यक्ति था जो उसे सुन भी रहा था और देख भी रहा था . और सोच भी रहा था की देखो तो हमें जो देश के तथा कथित बुद्धिजीवी बने फिरतें हैं . जो चुपचाप बस अपनी बुद्धि  का उपयोग अपना जीवन काटनें में कर रहें हैं . और पागल /अर्ध विक्षिप्त लोग देश की परवाह कर रहा है.और अकेला ही आन्दोलन चला चला रहा रहा है .वह बात तो सही कर रहा है मगर पागल है और लोग उस की
 तरफ सिर्फ देख रहें हैं उन के कान बंद हैं . और जिन के कान  खुलें हैं वे अपनी बुद्धि के गुलाम हैं और कोई प्रतिक्रिया नहीं दे रहे हैं . वे जानतें हैं कि उस पागल की इन बातों का कोई मतलब  नहीं।
मगर  मैं सिर्फ इतना सोच रहा था कि -
१. क्या  हम सड़क पर हो रहे किसी भी प्रकार के ड्रामे को मूक दर्शक की भांति खड़े रहेंगे  या फिर उस को रोकने के लिए किसी प्रकार का कदम भी उठाएंगे।
२. आखिर कब तलक हम अपने देश में सिर्फ दिखाने के लिए बुद्धिजीवी बने रहेंगे ,और देश में,गाँव में ,सड़क  पर  होने वाली घटनाओं को "छोड़ो " कह कर होने देंगे। 

३. क्या हमें उस पागल से सीख नहीं मिलती कि  यार उस का क्या है वह तो पागल है वह तो किसी भी देश में कैसे भी रह सकता है ,मगर हमें तो शांति ,सुरक्षा चाहिए ,वह सब चाहिए जिस से आराम से जीवन कटे ज़ब वह पागल हो कर भी अन्याय के खिलाफ आवाज उठा सकता है हम क्यों चुपचाप रहतें हैं ?
   

दुष्ट व्यक्ति यदि आपको सम्मान भी दे तो सावधान

समाज में दो प्रकार के मनुष्य सदा से ही पाए जाते रहें हैं – सज्जन और असज्जन | अलग अलग युगों में हम उन्हें विभिन्न नामों से पुकारते रहें ...