शुक्रवार, 28 सितंबर 2012

हिंदी का बढ़ता दायरा


     यह लेख मेरा नहीं अपितु श्री अरविन्द जय तिलक जी का है,जो एक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं] यह लेख एक समाचार पत्र में प्रकाशित हुआ था,उसी की क प्रतिलिपि में अपने कुछ अंग्रेजी हिंदी प्रेमी मित्रों के लिए पेश कर रहा हूँ)
        हिंदी के प्रचार-प्रसार को लेकर अब शोक जताने, छाती पीटने और बेवजह आंसू टपकाने की जरूरत नहीं है। हिंदी अपने दायरे से बाहर निकल विश्वजगत को अचंभित और प्रभावित कर रही है। एक भाषा के तौर पर उसने अपने सभी प्रतिद्वंद्वियों को पीछे छोड़ दिया है। विगत दो दशकों में जिस तेजी से हिंदी का अंतरराष्ट्रीय विकास हुआ है और उसके प्रति लोगों का रुझान बढ़ा है वह उसकी लोकप्रियता को रेखांकित करता है। शायद ही विश्व में किसी भाषा का हिंदी की तर्ज पर इस तरह फैलाव हुआ हो। इसकी क्या वजहें हैं, यह विमर्श और शोध का विषय है। लेकिन हिंदी को नया मुकाम देने का कार्य कर रही संस्थाएं, सरकारी मशीनरी और छोटे-बड़े समूह उसका श्रेय लेने की कोशिश जरूर कर रहे हैं। यह गलत भी नहीं है। यूजर्स की लिहाज से देखें तो 1952 में हिंदी विश्व में पांचवें स्थान पर थी। 1980 के दशक में वह चीनी और अंग्रेजी भाषा के बाद तीसरे स्थान पर आ गई। आज उसकी लोकप्रियता लोगों के सिर चढ़कर बोल रही है और वह चीनी भाषा के बाद दूसरे स्थान पर आ गई है। भविष्य भी हिंदी का ही है। कल वह चीनी भाषा को पछाड़ नंबर एक होने का गौरव हासिल कर ले तो आश्चर्य की बात नहीं होगी।
निश्चित ही इसके लिए वे सभी संस्थाएं और समूह साधुवाद के पात्र हैं जो हिंदी के विकास व प्रचार-प्रसार के लिए काम कर रहे हैं, लेकिन इस तथ्य से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि बाजार ने हिंदी की स्वीकार्यता को नई ऊंचाई दी है और विश्व को आकर्षित किया है। यह सार्वभौमिक सच है कि जो भाषाएं रोजगार और संवादपरक नहीं बन पातीं उनका अस्तित्व खत्म हो जाता है। मैक्सिको की पुरातन भाषाओं में से एक अयापनेको, यूक्रेन की कैरेम, ओकलाहामा की विचिता, इंडोनेशिया की लेंगिलू भाषा आज अगर अपने अस्तित्व के संकट से गुजर रही हैं तो उसके लिए उनका रोजगारपरक और संवादविहीन होना मुख्य कारण हैं। एक अनुमान के मुताबिक दुनिया भर में तकरीबन 6900 मातृभाषाएं बोली जाती हैं। इनमें से तकरीबन 2500 मातृभाषाएं अपने अस्तित्व के संकट से गुजर रही हैं। इनमें से कुछ को 'चिंताजनक स्थिति वाली भाषाओं की सूची' में रख दिया गया है। संयुक्त राष्ट्र द्वारा कराए गए एक तुलनात्मक अध्ययन से खुलासा हुआ है कि 2001 में विलुप्त प्राय मातृभाषाओं की संख्या जो 900 के आसपास थी वह आज तीन गुने से भी पार जा पहुंची हैं। जानना जरूरी है कि दुनिया भर में तकरीबन दो सैकड़ा ऐसी मातृभाषाएं हैं जिनके बोलने वालों की संख्या महज दस-बारह रह गई है। यह चिंताजनक स्थिति है।
दूसरी ओर अगर वैश्विक भाषा अंग्रेजी के फैलाव की बात करें तो नि:संदेह उसके ढेर सारे कारण हो सकते हैं, लेकिन वह अपने शानदार संवाद और व्यापारिक नजरिए के कारण भी अपना विश्वव्यापी चरित्र गढ़ने में सफल रही है। आज हिंदी भाषा भी उसी चरित्र को अपनाती दिख रही है। वह विश्व संवाद की एक सशक्त भाषा के तौर पर उभर रही है और विश्व समुदाय उसका स्वागत कर रहा है। कभी भारतीय ग्रंथों, विशेष रूप से संस्कृत भाषा की गंभीरता और उसकी उपादेयता और संस्कृत कवियों व साहित्कारों की साहित्यिक रचना का मीमांसा करने वाला यूरोपीय देश जर्मनी संस्कृत भाषा को लेकर आत्ममुग्ध हुआ करता था। वेदों, पुराणों और उपनिषदों को जर्मन भाषा में अनूदित कर साहित्य के प्रति अपने अनुराग को संदर्भित करता था। आज वह संस्कृत की तरह हिंदी को भी उतनी ही महत्ता देते देखा जा रहा है। जर्मन के लोग हिंदी को एशियाई आबादी के एक बड़े तबके से संपर्क साधने का सबसे दमदार हथियार मानने लगे हैं। जर्मनी के हाइडेलबर्ग, लोअर सेक्सोनी के लाइपजिंग, बर्लिन के हंबोलडिट और बॉन विश्वविद्यालय के अलावा दुनिया के कई शिक्षण संस्थाओं में अब हिंदी भाषा पाठ्यक्रम में शामिल कर ली गई हैं।
छात्र समुदाय इस भाषा में रोजगार की व्यापक संभावनाएं भी तलाशने लगा है। एक आंकडे़ के मुताबिक दुनिया भर के 150 विश्वविद्यालयों और कई छोटे-बड़े शिक्षण संस्थाओं में रिसर्च स्तर तक अध्ययन-अध्यापन की पूरी व्यवस्था की गई है। यूरोप से ही तकरीबन दो दर्जन पत्र-पत्रिकाएं हिंदी में प्रकाशित होती हैं। सुखद यह है कि पाठकों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। एक सर्वेक्षण के मुताबिक आज विश्व में आधा अरब लोग हिंदी बोलते हैं और तकरीबन एक अरब लोग हिंदी बखूबी समझते हैं। वेब, विज्ञापन, संगीत, सिनेमा और बाजार ऐसा कोई क्षेत्र नहीं बचा है जहां हिंदी अपने पांव पसारती न दिख रही हो। वैश्वीकरण के माहौल में अब हिंदी विदेशी कंपनियों के लिए भी लाभ की एक आकर्षक भाषा व जरिया बन गई है। उन्हें अपने उत्पादों को बड़ी आबादी तक पहुंचाने के लिए हिंदी को अपना माध्यम बनाना रास आ रहा है। यानी पूरा कॉरपोरेट कल्चर ही अब हिंदीमय होता जा रहा है। हिंदी के बढ़ते दायरे से उत्साहित सरकार की संस्थाएं भी जो कभी हिंदी के प्रचार-प्रसार में खानापूर्ति करती देखी जाती थीं वे अब तल्लीनता से हिंदी दिवस, हिंदी सप्ताह और हिंदी पखवाड़ा मना रही हैं। हिंदी भाषा के विकास और उसके फैलाव के लिए यह शुभ संकेत है।
[लेखक अरविंद जयतिलक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं]हिंदी के प्रचार-प्रसार को लेकर अब शोक जताने, छाती पीटने और बेवजह आंसू टपकाने की जरूरत नहीं है। हिंदी अपने दायरे से बाहर निकल विश्वजगत को अचंभित और प्रभावित कर रही है। एक भाषा के तौर पर उसने अपने सभी प्रतिद्वंद्वियों को पीछे छोड़ दिया है। विगत दो दशकों में जिस तेजी से हिंदी का अंतरराष्ट्रीय विकास हुआ है और उसके प्रति लोगों का रुझान बढ़ा है वह उसकी लोकप्रियता को रेखांकित करता है। शायद ही विश्व में किसी भाषा का हिंदी की तर्ज पर इस तरह फैलाव हुआ हो। इसकी क्या वजहें हैं, यह विमर्श और शोध का विषय है। लेकिन हिंदी को नया मुकाम देने का कार्य कर रही संस्थाएं, सरकारी मशीनरी और छोटे-बड़े समूह उसका श्रेय लेने की कोशिश जरूर कर रहे हैं। यह गलत भी नहीं है। यूजर्स की लिहाज से देखें तो 1952 में हिंदी विश्व में पांचवें स्थान पर थी। 1980 के दशक में वह चीनी और अंग्रेजी भाषा के बाद तीसरे स्थान पर आ गई। आज उसकी लोकप्रियता लोगों के सिर चढ़कर बोल रही है और वह चीनी भाषा के बाद दूसरे स्थान पर आ गई है। भविष्य भी हिंदी का ही है। कल वह चीनी भाषा को पछाड़ नंबर एक होने का गौरव हासिल कर ले तो आश्चर्य की बात नहीं होगी।
निश्चित ही इसके लिए वे सभी संस्थाएं और समूह साधुवाद के पात्र हैं जो हिंदी के विकास व प्रचार-प्रसार के लिए काम कर रहे हैं, लेकिन इस तथ्य से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि बाजार ने हिंदी की स्वीकार्यता को नई ऊंचाई दी है और विश्व को आकर्षित किया है। यह सार्वभौमिक सच है कि जो भाषाएं रोजगार और संवादपरक नहीं बन पातीं उनका अस्तित्व खत्म हो जाता है। मैक्सिको की पुरातन भाषाओं में से एक अयापनेको, यूक्रेन की कैरेम, ओकलाहामा की विचिता, इंडोनेशिया की लेंगिलू भाषा आज अगर अपने अस्तित्व के संकट से गुजर रही हैं तो उसके लिए उनका रोजगारपरक और संवादविहीन होना मुख्य कारण हैं। एक अनुमान के मुताबिक दुनिया भर में तकरीबन 6900 मातृभाषाएं बोली जाती हैं। इनमें से तकरीबन 2500 मातृभाषाएं अपने अस्तित्व के संकट से गुजर रही हैं। इनमें से कुछ को 'चिंताजनक स्थिति वाली भाषाओं की सूची' में रख दिया गया है। संयुक्त राष्ट्र द्वारा कराए गए एक तुलनात्मक अध्ययन से खुलासा हुआ है कि 2001 में विलुप्त प्राय मातृभाषाओं की संख्या जो 900 के आसपास थी वह आज तीन गुने से भी पार जा पहुंची हैं। जानना जरूरी है कि दुनिया भर में तकरीबन दो सैकड़ा ऐसी मातृभाषाएं हैं जिनके बोलने वालों की संख्या महज दस-बारह रह गई है। यह चिंताजनक स्थिति है।
दूसरी ओर अगर वैश्विक भाषा अंग्रेजी के फैलाव की बात करें तो नि:संदेह उसके ढेर सारे कारण हो सकते हैं, लेकिन वह अपने शानदार संवाद और व्यापारिक नजरिए के कारण भी अपना विश्वव्यापी चरित्र गढ़ने में सफल रही है। आज हिंदी भाषा भी उसी चरित्र को अपनाती दिख रही है। वह विश्व संवाद की एक सशक्त भाषा के तौर पर उभर रही है और विश्व समुदाय उसका स्वागत कर रहा है। कभी भारतीय ग्रंथों, विशेष रूप से संस्कृत भाषा की गंभीरता और उसकी उपादेयता और संस्कृत कवियों व साहित्कारों की साहित्यिक रचना का मीमांसा करने वाला यूरोपीय देश जर्मनी संस्कृत भाषा को लेकर आत्ममुग्ध हुआ करता था। वेदों, पुराणों और उपनिषदों को जर्मन भाषा में अनूदित कर साहित्य के प्रति अपने अनुराग को संदर्भित करता था। आज वह संस्कृत की तरह हिंदी को भी उतनी ही महत्ता देते देखा जा रहा है। जर्मन के लोग हिंदी को एशियाई आबादी के एक बड़े तबके से संपर्क साधने का सबसे दमदार हथियार मानने लगे हैं। जर्मनी के हाइडेलबर्ग, लोअर सेक्सोनी के लाइपजिंग, बर्लिन के हंबोलडिट और बॉन विश्वविद्यालय के अलावा दुनिया के कई शिक्षण संस्थाओं में अब हिंदी भाषा पाठ्यक्रम में शामिल कर ली गई हैं।
छात्र समुदाय इस भाषा में रोजगार की व्यापक संभावनाएं भी तलाशने लगा है। एक आंकडे़ के मुताबिक दुनिया भर के 150 विश्वविद्यालयों और कई छोटे-बड़े शिक्षण संस्थाओं में रिसर्च स्तर तक अध्ययन-अध्यापन की पूरी व्यवस्था की गई है। यूरोप से ही तकरीबन दो दर्जन पत्र-पत्रिकाएं हिंदी में प्रकाशित होती हैं। सुखद यह है कि पाठकों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। एक सर्वेक्षण के मुताबिक आज विश्व में आधा अरब लोग हिंदी बोलते हैं और तकरीबन एक अरब लोग हिंदी बखूबी समझते हैं। वेब, विज्ञापन, संगीत, सिनेमा और बाजार ऐसा कोई क्षेत्र नहीं बचा है जहां हिंदी अपने पांव पसारती न दिख रही हो। वैश्वीकरण के माहौल में अब हिंदी विदेशी कंपनियों के लिए भी लाभ की एक आकर्षक भाषा व जरिया बन गई है। उन्हें अपने उत्पादों को बड़ी आबादी तक पहुंचाने के लिए हिंदी को अपना माध्यम बनाना रास आ रहा है। यानी पूरा कॉरपोरेट कल्चर ही अब हिंदीमय होता जा रहा है। हिंदी के बढ़ते दायरे से उत्साहित सरकार की संस्थाएं भी जो कभी हिंदी के प्रचार-प्रसार में खानापूर्ति करती देखी जाती थीं वे अब तल्लीनता से हिंदी दिवस, हिंदी सप्ताह और हिंदी पखवाड़ा मना रही हैं। हिंदी भाषा के विकास और उसके फैलाव के लिए यह शुभ संकेत है।

शुक्रवार, 13 अप्रैल 2012

आखिर कब तक हम बाबाओं के माया जाल में पड़े रहेंगे ?

                आज पूरे दिन "स्टार न्यूज़" की पूरे दिन की एक मात्र मुख्य खबर रही कि किस तरह से उन्होंने एक बाबा के धन का पर्दाफाश किया.किस तरह वह बाबा अपनी भोली-भाली भक्त मंडली से धन खींचता था?कितना धन उस बाबा ने देश की भोली-भाली जनता से कमाया? बगैरा-बगैरा ...
                   मेरे ख़याल से यह कोई पहली बार नहीं है,जब किसी बाबा ने ऐसे लालच-पूर्ण कार्य को अंजाम दिया है.दुनिया भर में ,और विशेष तौर पर हमारे महान देश में तो यह आम बात है.क्यों भला हमीं वो मुर्गें हैं जो हमेशा ठगे जातें हैं?क्यों हम से ही कोई बाबा या ठग हमारे खून पसीने की कमाई का एक हिस्सा धर्म के नाम पर लूट कर अपने ऐसो-आराम में खर्च करता है,और मजे लूटता है? क्यों ?क्या हम इतने बड़े **तिये नज़र आतें हैं? जब भी मै टी.वी. पर उस कथित बाबा के समागम देखता था,मुझे आश्चर्य होता था कि उस में बड़े-बड़े उच्च शिक्षित लोग शिरकत करते थे,और कई धर्मों के लोग उस भीड़ में शामिल होते थे.वे सब  बस एक ही बात तोते कि तरह बोलते थे-"बाबा आप की कृपा से मेरे सारे सपने पूरे हो गए ." या फिर " बाबाजी आप की कृपा से मेरा बेटा जो चार महीने से अस्पताल में था वह ठीक हो गया." और ऐसे ही कुछ अन्य.अरे भाई! वो बेचारा डॉक्टर  जो दिन रात  एक कर के आप के बेटे की देख रेख कर रहा है,इलाज कर रहा है.उस बेचारे का क्रेडिट आप बाबा को क्यों दे रहे हो.और आप कभी हनुमान जी ,कभी माँ दुर्गा,तो कभी साईं बाबा के मंदिर में जा-जा कर जो इतनी सारी दुआएं मांग रहे हो उस का भी क्रेडिट बाबा को ???? ये क्या है भाई ?
   
                           "दुआएं तो सिर्फ फकीरों की लगा करतीं हैं,अमीरों की नहीं"
             "और हम फकीरों को अमीर बनाने में लगे जातें हैं,ये सोचे बिना कि जिस दिन वह फ़कीर अमीर बन जायेगा उसकी दुआएं काम करना बंद कर देंगी /"
                  इस सब के जिम्मेदार  सिर्फ और सिर्फ हम हैं.जो लोग अपने निजी जीवन में कुछ नहीं कर पाते उन्हें हम अपने अध्यात्मिक जीवन का आधार बना देतें है.ऐसे ही कुछ लोग हमें हमारे धर्म के बारे में अपने हिसाब से बतातें हैं.ऐसे लोग जो अपनी जिन्दगी में किसी काम को अंजाम नहीं दे पाते या कहूँ कि निकम्मे लोग,आखिर में बाबा बन कर हमें सिखातें हैं कि धर्म क्या कहता है?जीवन को कैसे जीना है ? धन का सदुपयोग कैसे करना है.अरे बांगड़ू अब तू बताएगा हमें धन का उपयोग करना,तू जिसने कभी धन कमाया ही नहीं.
 "धन का सदुपयोग करना उस व्यक्ति से अच्छा कोई नहीं जानता जिस ने जे तोड़ मेहनत करके उस धन को कमाया है." जहाँ तक मैं समझता हूँ.
           और ये बात सिर्फ हिन्दू धर्म पर ही लागू नहीं होती बल्कि इस्लाम,सिख,और बाकी सभी धर्म के लोग भी इसी श्रेणी में आतें हैं.अगर एसा नहीं होता तो हमरे देश में इतनी साम्प्रदायिकता या धर्मान्धता नहीं होती.अलग -अलग मजहब का बाबा अपने तरीके से उस धर्म कि व्याख्या करता है.धर्म मात्र भाषा-भूषा,शारीरिक दिखाबे,पहनावे और पूजा स्थल के आकर में बांध कर रह गया.मेरी समझ में यह नहीं आता कि वह धर्म जो मानव को मोक्ष यानि मुक्ति प्रदान करता है,वह स्वयं इन बंधनों में क्यों है?क्यों ईश्वर एक होने के बाबजूद,हम एक दुसरे को अलग-अलग मानतें हैं?क्यों कोई ईश्वर कि संतानों पर जुल्म करता है?क्यों हम उन  बेचारे जानवरों को मार कर अपना खाना बनालेतें हैं,जो हमारी तरह ही दर्द को महसूस  करतें हैं.हमारी तरह ही सब करतें हैं-"आहार,निद्रा,भय मैथुनं च"(Eating,Sleeping,Defense and Mating).क्यों कोई खुद जैसे किसी आदमी को अछूत घोषित करता?क्यों कोई जीवन भर किसी एक जाति या कुल में जन्म लेने के कारण शोषित होता रहता और कोई-कोई पुजता रहता? क्यों?
    क्या आप को नहीं लगता कि इन सब के पीछे एक ही कारण रहा है-धर्म जैसे पवित्र विषय का उन गलत हाथों में चला जाना जो कर्महीन हैं,और अत्यंत विषयी हैं.जो कुछ न करके भी संसार के सभी भोग भोगना चाहतें हैं.यहाँ तक कि वे स्वयं जो करतें हैं-उस कार्य को सही और उसी कार्य को कोई और करे तो उसे "पाप" जैसे भयानक नाम से संबोधित कर देतें हैं.इन लोगों ने धर्म-मजहब को अपने फायदे के लिए प्रयोग करना शुरू कर दिया,लोगों को ठगना शुरू कर दिया,या कहूँ कि हमें ठगना शुरू कर दिया.और हमें पता भी नहीं चला-
                     क्यों कि धर्म को तो आप केवल और केवल स्व-अध्ययन से तथा श्रेष्ठ गुरु से ही जान-समझ सकतें हैं.मगर हमें कहाँ फुर्सत धर्म को जानने की,या समझाने की.मगर डर और लालच ने आदमी को धर्म का अनुसरण करने को मजबूर कर दिया.ये मजबूर समय को बचाने के चक्कर में बाबाओं के पास पहुंचा-कोई भला बाबा मिला उसने बताया कि फलां मन्त्र का जाप करो मगर मगर बेचारे इंसान के पास फुर्सत नहीं-"बाबा ! जीतनी चाहें फीस ले लो ये जाप भी आप खुद ही कर लो? मुझे   व्यापार से /नौकरी से कहाँ फुर्सत?" " अरे ये तो तुम्हें खुद ही करना होगा वत्स!" "नहीं वो बंगाली बाबा तो जाप भी खुद कर देता है बस 51001 /- रुपये उनके खाते में डाल दो?"
मेरे हिसाब से तो आज कल हम व्यापार के युग में जी रहें हैं,जहाँ  प्रत्येक  वस्तु बस व्यापार से जुड़े हैं-चाहें वे रिश्ते हों(दहेज़ चाहिए),चाहें वह दोस्ती हो (पार्टी चाहिए ),चाहें वह ईश्वर पूजा हो(भेंट चाहिए) या फिर चाहें जो सब कुछ बिना धन के अपूर्ण है.
                    और दोष सिर्फ और सिर्फ हमारा है.या कहूँ कि मेरा.फिर क्यों मैं किसी और को दोष देता फिरता हूँ?

गुरुवार, 5 अप्रैल 2012

एक ऐसा देश जिस की ना कोई भाषा है, न कोई भूषा और न ही संस्कृति

     क्या आप जानतें हैं उस देश का नाम - जिस  की ना कोई  भाषा  है, न कोई  भूषा और न ही संस्कृति ? सब कुछ बस उधार का है.उस देश के नागरिक भी स्वयं को बड़ा ही श्रेष्ठ मानतें हैं,जब वे इन उधार की वस्तुओं का उपयोग करतें हैं.जिस देश को गुलामी की ऐसी लत लगी कि उन्होंने गुलामी की इन निशानियों को बड़े ही गर्व के साथ अब तक अपने सीने से लगा कर रखा है. समझ तो आप गएँ ही होंगे कि मैं किस  राष्ट्र की बात कर रहा हूँ ?...जी हाँ! बड़े अफ़सोस के साथ कह रहा हूँ कि अपने देश की ही बात कर रहा हूँ.
            "आजाद होने के बाद ,जब हमारे देश को गणतांत्रिक देश घोषित किया गया ,सरकार ने दुनिया के सब देशों से अपने राजनीतिक सम्बन्ध बनाने की श्रंखला में ,1952  में श्रीमती विजय लक्ष्मी पंडित को रूस में भारत का राजदूत नियुक्त किया तो जब वहां के सम्बंधित अधिकारीयों ने उन से प्रमाण पत्र मांगे तो श्रीमती पंडित ने जब प्रमाण पत्र दिखाए तो उन्हों ने उन प्रमाण पत्रों को स्वीकार करने से साफ़ मना कर दिया क्यों कि वे सब प्रमाण पत्र  भारतीय भाषा में ना हो कर अंग्रेजी भाषा में थे ,जो कि भारत की गुलामी की भाषा थी.और किसी गुलाम देश के साथ राजनयिक सम्बन्ध स्थापित करने का प्रश्न ही नहीं उठता.
       अधिकारियों ने उन से पूंछा कि "क्या भारत की अपनी कोई भाषा नहीं,क्या अंग्रेजों के आने से पहले आप गूंगे थे ?" मगर हमने उस अपमान को हंस कर सहन कर लिया, आज तक हम में कोई बदलाव नहीं हुआ.आज भी हमारी  पुस्तकों  से लेकर प्रमाण पत्र तक सब में अंग्रेजी पुती रहती है.

          हर साल सरकार हिंदी पखवाड़े को ले कर करोडो रुपयों में आग लगा देती है,यह कह कर कि हम हिंदी सिखा रहें हैं.अरे भाई ऐसी जगह पैसा क्यों फूंकते हो जहाँ उसकी आवश्यकता ही नहीं.क्या ब्रिटेन अंग्रेजी पखवाडा मनाता है.या चीन चीनी महीना मनाता है.क्या आप ने किसी देश को अपनी भाषा का अपने लोगों में ही प्रचार-प्रसार करते देखा है.मगर यह हमारा दुर्भाग्य है.
      विश्व के सभी सम्मेलनों में विभिन्न देशों  के राजनयिक(नेता लोग) अपनी राष्ट्र भाषा में ही भाषण देतें हैं,वे इस के बारे में कम चिंतित होते हैं कि किसी को उनकी भाषा समझ में आ रही है या नहीं.मगर हमें तो जैसे दिखाबे का बड़ा बुरा चश्का लगा रहता है.हमारे नेता बस अंग्रेजी में ही बोलतें हैं.अन्य सभी राष्ट्रों ने अनुवादक रखें होतें हैं दुसरे नेताओं कि बात समझाने के लिए मगर हमारे नेता तो बेचारे किसी अनुवादक कि नौकरी ही खा जातें हैं.किसी भी देश में भारतीय भाषा के लिए अनुवादक रखने कि कोई आवश्यकता ही नहीं पड़ती.हम चाहें सभी भाषाओँ के अनुवादक रख कर खर्च कर लें मगर किसी और को क्यों खर्च करने दें?
         एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मलेन में जब हमारे देश के पहले प्रधानमंत्री कि बारी आई तो सभी को बड़ी उत्सुकता  थी कि भारत की आवाज सुनने का मौका सभी को मिलेगा.मगर उन को निराशा तब हाथ लगी जब माननीय प्रधानमंत्री ने अंग्रेजी में भाषण प्रारम्भ किया.कितना बुरा लगा होगा सभी को कि उन के अनुवादक लोग तो बेचारे दो महीने से हिंदी का अभ्यास कर रहे थे,मगर इन महोदय ने उनकी पूरी मेहनत पर पानी फेर दिया.
 मुझे तो उन अनुवादकों पर दया आ रही है,क्यों कि जहाँ तक मैं सोचता हूँ उन को तो अगले ही दिन नौकरी से यह कह कर निकाल दिया गया होगा कि भारतीय नेता तो हिंदी में बोलतें ही नहीं  हैं.तो आप की क्या आवश्यकता?
      यही हाल तब हुआ था जब विश्व के कुछ भारतीय संस्कृति प्रेमियों ने हिंदी को भारत की भाषा मानते हुए उसे  "संयुक्त  राष्ट्र  संघ" में उचित  स्थान दिलवाने के लिए "विश्व हिंदी सम्मलेन " के आयोजन कि नींव रखी.पहले दो सम्मलेन क्रमशः नागपुर व मॉरिसस में आयोजित हुए,मगर जब तृतीय विश्व हिंदी सम्मलेन दिल्ली में आयोजित किया गया तो सभी हिंदी प्रेमियों का उत्साह ठंडा पड़ गया,क्यों कि उन्हों ने देखा  कि  हिंदी स्वयं अपने ही देश में सम्मानित नहीं है.इस सु-अवसर पर तत्कालीन प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरागांधी व अन्य अधिकारियों ने अपना अभिभाषण तक हिंदी में नहीं पढ़ा.जो मशौदा तैयार किया गया था वह भी अंग्रेजी में था.
                 दुर्भाग्य से आज भी मैं जब हिंदी पखवाड़े की स्थिति देखता हूँ तो कुछ ऐसी ही पाता हूँ,अधिकारी गण अपने समापन भाषण को हिंदी में देने में हमेशा ही असमर्थ होतें हैं.क्या ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री मि.चर्चिल सही कहते थे कि-
                      "हमने ही भारतीयों को सभ्य बनाया है,अन्यथा न तो इन की कोई भाषा थी न ही साहित्य."


          अब रही बात भूषा की तो भारतीय वेश-भूषा यानि धोती-कुर्ता को या तो नेता पहनतें हैं या फिर अभिनेता.आम आदमी अपनी देशी वेश भूषा में न जाने क्यों स्वयं को दिखावटी सा महसूस करता है.न जाने क्यों उसे शर्म सी आती है इसे पहनने में.क्या जापानियों को,या चीनियों को अपनी पारंपरिक वेश-भूषा पहनने में ऐसी शर्म आती होगी ? क्या अरब देशों के बादशाह या फिर आम नागरिक अपनी भूषा को पहनने में शरमातें होंगे? क्या उन्हें अपनी वेश भूषा से किसी प्रकार कि व्यवसायिक हानि हुई ? शायद नहीं मगर हमारे भारतीयों को इन सारी बाधाओं का सामना करना पड़ता है,उसके अपने देशवासी उसको ऐसे कपड़ों में देख उस का मखोल बनाना शुरू कर देतें हैं या फिर उसे "असामान्य"(ABNORMAL) का खिताब दे देतें हैं.अब वह करे तो क्या करे ? इस किम्कर्तव्य-विमूढ़ की स्थिति में वह तुरंत ही कमीज -पतलून या फिर आधुनिक जींस- T-SHIRT पहन कर पागलों की तरह घूमने पर विवश हो जाता है,या कहूँ कि खुश रहता है.अब उसे कोई टोकता नहीं है .अब सब को सामान्य लगता है."गुलामी यहाँ सामान्य है,स्वतंत्रता असामान्य.चाहें वह विचारों कि हो या भाषा की या फिर व्यक्तिगत रहन-सहन की".हमें खुद पर कभी नाज़ नहीं होता अपितु बगल वाले पर ज्यादा होता है.हमारा आत्मविश्वास  बड़ा ही दुर्बल है.हमें नक़ल  करना इतना अच्छा लगता है की हम भूल जातें है,नक़ल सिर्फ अनुकूल  चीजों की, की जाती है न की प्रति कूल  की.अब कोई गर्मी के वातावरण में मोटे-मोटे कपडे(जींस) पहने तो यह कहाँ की अनुकूलता.मगर हमें इस बात का होश कहाँ.लोग हमें पागल  बना रहें हैं और हम बन रहें हैं.हम न चाहते हुए भी वह पहन रहें जो दुसरे हमें पहनाना चाहतें हैं.भले ही उन कपड़ों में हमें आराम नाम की कोई चीज नजर नहीं आती.मगर बस ऊपरी तौर पर हम प्रोफेशनल दिखने के लिए ऐसा करतें हैं.और इस के आदी बन जातें हैं.फिर हमें वही सब भाने लगता है.यह कहना गलत ना होगा की हमारी भारतीय वेश-भूषा मात्र मध्यम वर्गीय और कुछ उच्च वर्गीय महिलाओं द्वारा ही पारंपरिक रूप में प्रयोग में लायी जाती है,अन्यथा पुरुष तो स्वयं को आज भी ब्रिटिश गुलाम  ही मानतें हैं.कहने का अर्थ है की मात्र महिलाएं ही हैं जो आज भी भारतीय संस्कृति को जीवित रखें हुए हैं,और हम कहतें हैं की हमारा देश पुरुष प्रधान देश है.भला गुलाम मानसिकता कभी प्रधान हो सकती है क्या?
   और किसी देश की संस्कृति उस देश की भाषा और भूषा का ही मिला जुला रूप होती है,तो हुआ न हमारा देश ऐसा देश जिसकी न कोई भाषा है न कोई भूषा,और न ही कोई संस्कृति.मुझे बड़ा ही अफ़सोस है यह कहने में कि
  ऐसे देश को मैं कैसे महान कहूँ.
                                                       कैसे कहूँ -मेरा भारत महान 




                                                                                           (प्रतियोगिता दर्पण के अप्रेल अंक से प्रेरित)









शनिवार, 31 मार्च 2012

चलिए आप को श्रीनगर लिए चलतें हैं-2


ऑन लाइन होटल बुकिंग साईट www .मेरी ट्रिप बनाओ.कॉम से जब बुकिंग की तो ससुरा १५००/-के होटल का दाम लिखा आ रहा था जब पेमेंट करने का टाइम आया तो ४२०/- रुपये सर्विस चार्ज घूंस दिया उस में.जब में श्रीनगर पहुंचा तो वहां जब मैंने होटल की छान-बीन की तो मालूम पड़ा की यहाँ तो ४५०-५०० रुपये में भी बढ़िया होटल उपलब्ध हैं.मैंने सोचा की जितने में एक रात रुक रहें हैं उतने में तो तीन रातों का बन्दों वस्त हो जाता.मगर का करें ,इंटरनेट के कुछ दुरूपयोग भी तो होतें हैं ना.उन में से ये भी है.तभी मेरी आँखें खुलीं की भैया इन्टरनेट सिर्फ ज्ञान का ही नहीं अपितु ज्यादा पैसे कमाने का भी साधन है.क्यों कि जिन होटलों के दाम ४००-५०० रु.थे उन के नाम इन्टरनेट पर नहीं थे.सच कहूँ तो मैं ५०० रुपये में भी संतुष्ट नहीं था मुझे और सस्ता चाहिए था या फिर यौ कहूँ कि जितना सस्ता मिल जाये उतना बढ़िया.मगर इसका मतलब मूलभूत आवश्यकताओं से  समझौता नहीं था.जैसे ही मैं टी.आर .सी.(टूरिस्ट रिसेप्सन सेंटर) पर पहुंचा,वहां कई सारे एजेंट मेरे सामने प्रगट हो गए.होटल बुकिंग के लिए प्रार्थना-सी करते दिखे.बड़े अच्छे लोग हैं श्रीनगर के .मैंने साफ़ कह दिया कि भाई मुझे तो ३००-४०० रुपये में होटल चाहिए.ऐसा सुनते ही ज्यादा तर एजेंट लोग साफ़ हो गए,क्यों कि इतना तो होटल का ही बनता फिर उन्हें दलाली में क्या मिलता-कद्दू? एक बूढ़ा- सा व्यक्ति मेरे सामने रुका ,उस ने कहा-"क्या आप मेरे गेस्ट हाउस रहना चाहेंगे.वह मेरे घर में ही है.हम भी वह रहते हैं.हम घर का खाना भी बना कर देंगे."घर के नाम पर मुझे थोड़ी सी अलग सी बात लगी खैर मेरी पत्नी कि सहमती पर मैंने सोचा कि कमरा देखने में तो कोई बुराई  नहीं है.पसंद आएगा तो रह लेंगे नहीं तो कहीं और देखेंगे.बहरहाल कमरा बहुत अच्छा लगा और मात्र ३००/- में ही तय हो गया.कहने का मतलब है कि डल झील के आस पास आप को बहुत बढ़िया और बजट वाले होटल्स आराम में मिल जायेंगे जिन के रेट्स अप्रेल-अक्तूबर तक के पीक सीजन में लगभग 800 -1000 रुपये और ऑफ़ सीजन(नवम्बर-मार्च) में 300-600 रुपये में पड़ सकता है
.इस के लिए जैसे ही आप T.R.C. पर उतरतें हैं,होटल्स के एजेंट्स आप को घेर लेंगे,आप बिना शर्माए अपना बजट बता दीजिये अगर आप दिखाबे के चक्कर में पड़े तो आप को चुना लगने में देर नहीं करेंगे.और हाँ वहां के लोग इज्जत पसंद हैं इसलिए तमीज से बात करना न भूलें.अगर आप सरकारी होटल्स में रुकना पसंद करें तो T.R.C की बगल में ही सरकारी होटल है जिस में आप बात कर सकतें हैं.सौदेबाजी वहां भी चलती है इसलिए यह सोचना बेकार होगा कि सरकारी है तो फिक्स दाम होगा ही.आप अपनी सौदे बाजी(Bargaining)  की आदत से कभी बाज नहीं आना,क्यों की यही आदत आप की सुरक्षा कवच का काम करेगी.और आप की जेब को सुरक्षित रखेगी.से यात्रा जितनी सुरक्षित हो उतना ही मजा बढ़ जाता है उस पर भी सस्ती हो तो क्या बात है.मेरा मतलब है की अगर आप हनीमून पर जा रहें हैं तो जो मजा यहाँ श्रीनगर में है उतना मजा शायद कहीं नहीं.सर्दी इतनी होती है जनाब कि मोहतर्मा को आपके गले से लिपटना ही पड़ेगा.बस आपको उन्हें शानदार शोपिंग कराना नहीं भूलना है.और भाई इस लिए जो आप बजट होटल्स और बस यात्रा कर के माइनस करेंगे वह आप अपनी 'उन' के लिए शोपिंग में लगा दीजिये.बचने नहीं दूंगा भाई,अगर आप सोच रहें हों तो.होटल तो हो गया.
आइये अब खाने-पीने की बात करतें हैं,दरअसल मैं शाकाहारी हूँ इस लिए केवल उसी विषय मैं बता सकूँगा,मांसाहारी मुझे क्षमा करेंगे.अगर आप डल गेट के आस पास ठहरें हैं तो आप को बहुत सारे भोजनालय/ढाबे मिल जायेंगे.यहाँ ज्यादातर लोग रेस्टोरेंट को ढाबा ही बुलातें हैं,तो सब से शान दार और स्वादिष्ट खाना बनाने वाले दो ढाबे पसंद आये- १. कृष्णा ढाबा २. वैष्णो ढाबा .ये दोनों ही अगल बगल हैं.T.R.C. या डल गेट के आस पास किसी से भी पूंछने पर आप को इन तक पहुँचाने मैं देर नहीं लगेगी.

तीसरा मैं चाहूँगा कि आप यूँ तो अपनी सुविधानुसार बस या ऑटो या टेक्सी किसी मैं भी सफ़र कर सकतें हैं.मगर मैं यहाँ कहना चाहूँगा कि यहाँ की बसों में आप अपने परिवार के साथ बड़े ही अदब के साथ सफ़र कर सकतें हैं.कश्मीरी संस्कृति आज  भी इतनी महान है कि वहां के लोग टूरिस्ट्स का दिल से सम्मान करतें हैं,जहाँ आज  कल ज्यादा तर टूरिस्ट प्लेस वहां के लोगों कि शरारतों की बजह से बदनाम हैं,श्रीनगर में आप को यह शिकायत बिलकुल नहीं मिलेगी.वहां आप देर सबेर भी बाजार या बागों में घूम सकतें हैं.श्रीनगर के आस पास के दर्शनीय स्थलों के लिए आप बस से जा सकतें हैं,इस के लिए आप को एक दिन पहले ही या सुबह 8 बजे तक T.R.C पहुँच कर टिकट बुक करनी होंगी.इन बसों में आप के जैसे टूरिस्ट लोग ही होंगे जिन के साथ आप खुद को बड़ा ही अच्छा महसूस करेंगे.कहने का मतलब आप अपनी मेम साब के साथ हंसी ठिठोली  कर सकतें हैं,शर्माने की कोई जरुरत नहीं है.हो सकता है आप शर्मायें तो वहां का माहौल  ख़राब हो सकता है.मतलब कि बस में भी आप पूरा मजा सुरक्षित रूप से उठा सकतें हैं.
        गुलमर्ग या सोनमर्ग जाते वक़्त आप को गर्म कपडे पहन कर जाना होगा,क्यों कि यहाँ सामान्य तौर पर बहुत ठण्ड होती है.मगर चिंता कि कोई बात नहीं आप गलेंगे नहीं,जो गरम कपडे आप ले के जायेंगे उस से आराम से आप का काम हो जाना चाहिए.मगर फिर भी आप सुविधानुसार गर्म कपडे पहन लें तो बेहतर होगा.बर्फ में चलने के लिए बड़े जूतों यानि कि बूटों की जरुरत पड़ती है,जिस के लिए बस चालक आप को गुलमर्ग से 13 Km पहले ही तंगमार्ग में अपनी कमीशन वाली दूकान के सामने खड़ा कर देगा.जहाँ से ज्यादा तर टूरिस्ट्स को 100-200 रुपयें जोड़ी किराये पर बूट मिलतें हैं.मगर आप चूँकि मेरा ब्लॉग पढ़ रहें हैं ,तो आप को बताना ही पड़ेगा की गुलमर्ग में मात्र 20-50 रुपये जोड़ी में ही मिल जातें हैं.गुलमर्ग में गोंडोला का लुत्फ़ लेना मत भूलियेगा.
             याद  रखिये - बारगेनिंग करना

           मैं चाहूँगा कि अगर आप श्रीनगर जाएँ तो आप को अपने हिसाब से रहने -घुमने  में कोई परेशानी न हो.हो सकता है मेरा ये नुभव आप के काम आये.अगर मेरा अनुभव आप के जरा सा भी काम आया.तो में खुद को भाग्यशाली समझूंगा.
महत्त्वपूर्ण पते -ठिकाने-
1. होम हॉउस- यह एक घर जैसा ही गेस्ट हॉउस है जहाँ आप को घर जैसी फीलिंग होगी.यहाँ की रूम सर्विस बहुत ही फास्ट है और मेहमान नवाजी को देखते हुए,आप को यहाँ बहुत मजा आएगा.रूम्स बहुत साफ़ सुथरे हैं गीजर लगे हुए हैं.२४ घंटे बिजली,पानी की व्यवस्था.जैसे ही आप श्रीनगर की यात्रा से लौटेंगे होम हॉउस  के सदस्य आप का गरमा-गरम चाय कहवा के साथ स्वागत करेंगे.आप जाइये और खुद देखिये?
पता-H.No.4,Modern Hospital Road,Opp. Child Care School,Zero Bridge,Raj Bagh
Phone-9906580545/9796517362 ( Abdul Hamid )
2.भोजनालय- कृष्णा /वैष्णो ढावा , दुर्गानाग मंदिर ,TRC से १/२ किमी की दूरी पर ,श्रीनगर.


3. सही दाम पर शॉल,जाकेट जैसी कश्मीरी यादों के लिए आप जा सकते हैं-
   Gh-Qadir & Sons-Aram-wari,zero Bridge,Modern Hospital Road.
       (no bargaining here)
४. इस बार श्रीनगर में मैंने एक और ठिकाना ढूढ़ा।  जहाँ  मुझे बहुत मजा आया। इस का पता निम्नलिखित है
          इस्कॉन मंदिर (श्री  राधा  कृष्ण मंदिर )
श्री कठलेश्वर महादेव ,
टाँकीपोरा, D.C. ऑफिस के पास , 
हब्बा कदल , जहांगीर चौक श्रीनगर।
       यहाँ बहुत साफ़ और सुन्दर रूम्स उपलब्ध हैं.जहाँ  सुबह -शाम का सात्विक भोजन  उपलब्ध रहेगा। यहाँ आपको होटल जैसा तो नहीं मगर घर जैसा आनंद जरूर मिलेगा. यहाँ के प्रतिदिन के चार्जेज बहुत ही कम हैं (500-700 Rs भोजन सहित ).लेकिन यहाँ  के नियमों का पालन करना अनिवार्य है. जिसके बारे में वहां जानकारी दे दी जाती है. मेरी व्यक्तिगत राय में आप यहाँ बहुत में रहेंगे.

आप की प्रतिक्रियाएं ,मेरे लेखन को बेहतर बनातीं हैं .इस लिए लिखते रहिये .
भड़ांस निकालते रहिये.

रविवार, 25 मार्च 2012

चलिए आप को श्रीनगर लिए चलतें हैं-1

    यह साल (२०१२)मेरे लिए और मेरे  खान- दान के लिए बड़ा ही विशेष था.क्योंकि इस वर्ष ही मुझे और मेरी पत्नी को श्रीनगर जाने का मौका मिला.नहीं तो मेरी पिछली तीन पीढ़ियों ने उत्तर प्रदेश से तो क्या अलीगढ से आगे निकल कर नहीं देखा.भाई किस को फुर्सत है खेती-बाड़ी  से?मगर मैंने तो सोच लिया था कि भैया चाहें कुछ भी हो घूमना-घुमाना जरुर करूँगा चाहें थोडा-बहुत कम बचत करनी पड़े.क्योंकि ज़नाब गाफिल ने क्या खूब कहा है-"सैर कर दुनिया कि गाफिल जिंदगानी फिर कहाँ / जिंदगानी  गर रही तो नौ-जवानी फिर कहाँ?"
 जैसा कि मैंने कहा कि यह साल मेरे  लिए बड़ा ही विशेष रहा,कई रिकॉर्ड टूटे मेरे खान दान के -
पहला रिकॉर्ड -मै और मेरे  परिवार ने एयर-इंडिया से हवाई यात्रा की.आज कल अगर कोई आम आदमी एयर-इंडिया से हवाई यात्रा कर ले ये ही अपने आप में रिकॉर्ड बन जाता है.हांलांकि सरकारी अफसरों की बीबियाँ अपने पति के ऊपर जबरदस्ती दबाव डाल कर उनका और अपने परिवार का रिजर्वेसन एयर-इंडिया में ही करवातीं हैं क्यों कि उनको लगता है कि एयर इंडिया की यात्रा उन के पति के लिए सुरक्षित है.क्यों कि एयर इंडिया कि एयर होस्टेस अधेड़, साड़ी-शुदा और शादी-शुदा होती हैं.जिस से उन के पति खुद ही  तांक-झांक नहीं करतें हैं.अन्यथा किंगफिशर  जैसी एयर-लाइंस में तो साधू-संत भी चक्षु-शेकन करना आरम्भ कर देतें हैं.आम आदमी तो फिर भी अबला नारी का शिकारी होता ही  है.
     और फिर एयर इंडिया में सफ़र करना इतना महंगा है कि आम आदमी तो अपनी बीबी को समझा लेता है कि -"तुम ऐसा करो प्रिये! कि एक किलो चावल-दाल मिक्स कर लो.मैं फ्लाईट मैं दोनों को अलग करता रहूँगा.इस से पैसे भी बच जायेंगे और मैं उन किंगफिशर की अप्सराओं की ओर मेरा ध्यान भी नहीं जायेगा."


        दूसरा रिकॉर्ड यह टुटा कि मैं उस उत्तर प्रदेश कि सीमा से बाहर निकला,जिस उत्तर प्रदेश मैं हाथी भी मूर्ति बन के चुप-चाप पार्कों में खड़ा रहता है.सरकारी उच्चा अधिकारी भी बहन जी के सामने दम हिलाते नज़र आतें हैं .तो बेचारा आम आदमी क्या करेगा?जिस उत्तर प्रदेश में दलितों को मात्र वोट-बैंक की दृष्टि से ही देखा जाता है.जिन्हें जीवन पर्यंत दलित जीवन की सीमाओं में बंधे रहने के लिए अप्रत्यक्ष रूप से बाधित किया जाता है.क्यों कि चाहें वे कितने भी बड़े बन जाएँ,मगर politician  अपने फायदे के लिए उन्हें दलित ही बना कर रखतें हैं .फिर क्या फर्क पड़ता है कि आप कि आर्थिक स्थिति कितनी सुद्रढ़ है जब तक कि आप को दलित ही कहा जा रहा है.दलित शब्द का अर्थ है-"प्रताड़ित/पीडित/शोषित".मगर क्या कोई व्यक्ति तब भी शोषित रहता है जब वह उच्च सरकारी सेवाओं पर नियुक्त हो जाता है.जहाँ उसे अपनी सात पीढ़ियों तक को पालने पैसा मिल जाता है.मगर वह भी अपने बच्चों को दलित कहलवाना ही पसंद करता है -चंद आरक्षण सम्बन्धी लाभों के लिए.जिस अभिशाप से बचाने के लिए संविधान में दलित-भलाई कार्यक्रमों का प्रावधान गुनी-जनों ने किया था वे सब निरर्थक ही सिद्ध होतें है क्यों कि आज तक दलित का बेटा या उसके बेटे का बेटा दलित ही रहा है.उस का ओहदा बढ़ सकता है ,उस कि आर्थिक स्थिति मजबूत हो सकती है मगर उस कि सामाजिक स्थिति मैं कोई बदलाब नहीं आता.वह अपनी आगामी पीढ़ियों को भी जन्मजात  दलित घोषित कर देता है.क्यों कि  दलित बने रहेंगे तो ही आरक्षण भी मिलाता रहेगा.फिर कोई क्यों अपनी स्थिति में सुधार लाये.
                       मैंने उस उत्तर प्रदेश की सीमायें पार की जिस की सीमाएं सिर्फ बाहरी प्रदेशों में काम पानें और अपना पेट भरने के लिए ही पार की जाती हैं .ना कि घुमक्कड़ी का शौक पूरा करने के लिए.जहाँ के लोग आज भी पुलिस थाने में रिपोर्ट दर्ज करने के ५०० रुपये देतें हैं.जहाँ कि पुलिस पैसे ले कर भी ,कब ताकतवर पार्टी के साथ मिल जाये कोई भरोसा नहीं,जहाँ गरीबों के लिए आने वाला मिटटी का तेल भी उन के घरों को फूंकने के काम में लिया जाता है.जहाँ की शासन व्यवस्था को आज तक कोई चाणक्य नहीं मिला,न कोई चन्द्रगुप्त.जो भी शासक बना उसने सिर्फ अपनी और अपनी जाति कि भलाई के बारे में ही सोचा.किसी ने अपने गाँव के लिए रन-वे बनवा दिया तो किसी ने हेली-पैड.किसी ने हाथी की मूर्ति लगवा दी तो किसी ने गधे की.समझ नहीं आता कि इन के पास इन हाथियों-गधों से मिलने कि फुर्सत खूब मिलती हैं मगर इंसानों  कि याद सिर्फ चुनाव से पहले ही आती है.
               मजाक-मजाक में बहुत भंडास निकाल ली ,क्या करें  इन राज नेताओं ने अपने विशेष* कर्मों से लेखकों को इतना मसाला प्रदान कर दिया कि जितना भी गरियाओ,न तो मसाला ख़त्म होता है न भंडास.खैर मैंने श्रीनगर जाने के लिए लिए लगभग दो महीने पहले से तयारी शुरू कर दी थी.होटल्स कि तलाश ओन लाइन कि तो ससुरा सब से सस्ता होटल मिला तो 1455 /- का.अब वहां जाना था तो रहना ही पड़ेगा.इस लिए एक दिन के लिए वाही होटल बुक कर दिया.हांलांकि 6 दिन रहना था मगर होटल एक दिन के लिए बुक किया.यह सोच कर कि हो सकता है कि डैरेक्ट होटल बुक करें तो शायद कुछ रियायत मिल जाये.मगर जब में वहां पहुंचा तो इन ऑन-लाइन होटल बुकिंग की असली पोल खुली.भैया जितने भी टूरिस्ट एरिया के जो होटल वालें  हैं ससुरे बहुत ही चालू पुर्जे वाले हैं.इन का कोई हिसाब- किताब नहीं है.जैसी मुर्गी फंस जाये,वैसा ही बटोर लो.क्यों कि ज्यादा तर तो वहां हनी-मून मनाने ही जातें हैं इसीलिए नई बीबी को  इम्प्रेस करने के चक्कर में ससुरे खूब खर्चा करतें हैं.खूब महंगे होटल में रुकतें हैं .अब एक बात बताइए आप हनी-मून बीबी के साथ मनाएंगे या होटल के साथ.खैर सौ बातों की एक बात कि भैया अगर पैसा मेहनत का हो तो खर्च किया जाता है,और हराम का हो तो उड़ाया जाता है.मालुम नहीं कि मेहनतकश लोग पैसा उड़ाने की बात क्यों करतें हैं.अगर उड़ना ही था तो इतनी मेहनत क्यों?

बुधवार, 1 फ़रवरी 2012

ऑन- लाइन शोपिंग !!! आप ने अभी तक की या ...नहीं

शीर्षक जितना अट-पटा है,उतना ही मजेदार भी है.सच बता रहा हूँ मित्रो .आज से छह -सात महीने पहले मुझे भी किसी  ने इसी तरह से bade ही aashchary से कहा था -ऑन- लाइन शोपिंग !!!  आप ने अभी तक की या ...नहीं ?
फिर मैंने निश्चय कर लिया-की अब तो ऑन- लाइन शोपिंग !!! का पूरा आनंद लेना ही पड़ेगा.और सच में बहुत अच्छा अनुभव रहा-ऑन- लाइन शोपिंग  का.मैंने सब से पहले एक 8  जी बी का पेन ड्राइव का ऑन- लाइन आर्डर किया.bajaar में जिस की कीमत ५५०-६०० तक पद रही थी.मुझे वह मात्र ४५०-४९५ में पड़ा.और फिर जितना ज्यादा में इस ऑन- लाइन शोपिंग की दुनिया में घुसा उतना ही अच्छा अनुभव और मिला-आप भी ऑन- लाइन शोपिंग  का आनंद उठा सकते हैं-नीचे कुछ बातें जो आप को अच्छी लगेंगी -
१-ऑन- लाइन शोपिंग के लिए मेरे हिसाब से निम्न वेब साइट्स पूरी तरह से भरोसे मंद हैं -
 www.homeshop18.com, www.naaptol.com , www.koovs.com, www.flipcart.com, www.snapdeal.com ,www.letsbuy.com इत्यादि ,जिनसे मैंने शोपिंग की है .और बहुत अच्छे प्रोडक्ट प्राप्त हुए.कई बार तो मैंने डेबिट-कार्ड से पहले ही पेमेंट किया है.हांलांकि ये विकल्प मैंने तभी प्रयोग किया जब किसी प्रोडक्ट पर " कैश- ऑन डिलीवरी " विकल्प नहीं था.
२.ज्यादा तर वेब साइट्स कैश ऑन डिलीवरी का विकल्प देती हैं जो सब से बेहतर है.
३. जब आप आर्डर प्लेस कर रहें है तो इस से पहले एक बार अन्य वेब साइट्स पर भी उस वास्तु का दाम जांच लें ,कई बार दूसरी वेब साइट्स पर वही चीज सस्ती मिल  जाती है.तो फिर महंगा क्यों खरीदना ?
४. जब भी आप किसी चीज को लेने/खरीदने की योजना बना रहे हों तो उस से पहले वेब साइट्स को चेक करते रहिये.कभी- कभी कुछ चीजें आप के लोकल मार्केट में भी ऑन लाइन से सस्ती मिल सकतीं हैं.आप ये कभी न भूलें.एसा उन चीजों में ही होता जो ज्यादा तर बिना ब्रांड नाम वाली होतीं हैं.जैसे कपडे इत्यादि.लेकिन गेजेट्स आदि के सही दाम ऑन लाइन मिलने के चांस बहुत ज्यादा होतें हैं.
५. और हाँ ,coupons का लाभ उठाना भी सब से बड़ा मजे दार और फायदे मंद तो है ही.इस के लिए जरुरी नहीं की  सामान्य बाज़ार की तरह आप के पास coupons हो ही .अरे भाई , coupons  भी ऑन लाइन उपलब्ध रहते हैं आज कल.बस सर्च मारिये-गूगल बाबा हैं ना.चलिए एक सब से जबरदस्त वेब साईट का नाम में आप को बता देता हूँ ,जहाँ  सभी शौपिंग साईट के coupons उपलब्ध रहते हैं.और इन coupons से आप २०-३०% तक फायदा अतिरिक्त कर सकतें हैं .मतलब सस्ते पे सस्ता .
६. और हाँ ! वह कोई और जमाना होता होगा ,जब ऑन लाइन वेब साईट से  लैपटॉप के जगह C.D. Player भेज दिए जाते होंगे.जैसा की कुछ लोग सुनी सुने कहतें हैं.भाई आज कल तो हरेक बुद्धिमान ऑन लाइन शौपिंग करना पसंद करेगा.बशर्ते इन्टरनेट की सुविधा उस के पास होनी चाहिए.और आप के पास तो वह पहले से ही है.
तो आप से में पूछता हूँ -ऑन- लाइन शोपिंग !!!  आप ने अभी तक की या ...नहीं ?


दुष्ट व्यक्ति यदि आपको सम्मान भी दे तो सावधान

समाज में दो प्रकार के मनुष्य सदा से ही पाए जाते रहें हैं – सज्जन और असज्जन | अलग अलग युगों में हम उन्हें विभिन्न नामों से पुकारते रहें ...